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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास


सात

संध्या की हठ और उसकी गंभीरता ने रलियाराम को विवश कर दिया कि उसे सब कह दे। उसने उसे बताया कि उसकी माँ गरीबों की बस्ती में किसी सराय में रहती है और यात्रियों को चाय इत्यादि पिलाकर बसर करती है। उसने यह भी बताया कि वह भले आदमियों का स्थान नहीं वहाँ हर समय गुंडे मंडराते रहते हैं। उचित दिन जाकर वह स्वयं उसकी माँ को ले आएगा किंतु संध्या के न मानने पर उसे सराय का पता-ठिकाना बताना ही पड़ा।

उसी दिन दोपहर को संध्या निशा के संग उसकी गाड़ी में बैठ बताए हुए पते पर चल दी।

सराय रहमत उल्लाह का तंग द्वार देखकर संध्या का दिल डर से कांप सा गया। जीवन में पहली बार उसने ऐसे स्थान में पाँव रखे थे।

सराय एक अच्छा-खासा चंडूखाना था। बहुत सी मिली-जुली आवाजों से एक विचित्र-सा शोर उत्पन्न हो रहा था। बंद वातावरण में सिगरेट का धुआँ घुटन-सी पैदा कर रहा था। संध्या को खांसी आ गई।

ड्राईवर ने भीतर जाकर पूछताछ की और लौट आया। लोग संध्या को घूर-घूरकर देख रहे थे।

'कुछ पता चला?' संध्या ने उससे पूछा।

'हाँ। आइए-मेरे साथ।'

वह ड्राईवर के पीछे-पीछे चल पड़ी जो थोड़ा चलकर एक स्तंभ के पास रुका। मार्ग में इधर-उधर लोग इस प्रकार बैठे हुए थे मानों अफीम खाए हों।

संध्या उनसे बचकर चलती हुई उसी स्तंभ के पास आई जहाँ ड्राईवर खड़ा था। सामने बरामदे में एक अधेड़ आयु की स्त्री मिट्टी के प्याले में गर्म कहवा उड़ेल रही थी। संध्या कुछ क्षण तो विस्मित उसे देखती रही फिर ड्राईवर से पूछने लगी-

'तो क्या यही हैं खाना बीबी?'

'जी - वास्तविक नाम तो कोई नहीं जानता, सब इसे खाना बीबी ही कहते हैं।' संध्या स्तंभ के पीछे खड़ी होकर उसे देखने लगी। खाना बीबी ने एक प्याला उठाकर सामने लेटे आदमी को दिया जो प्याला पकड़ते हुए बोला-’खाना बीबी कितनी अच्छी हो तुम - तुम्हारी आखें इस अस्वस्थता में भी जादू का प्रभाव रखती हैं - जवानी में जाने-'

वह बात पूरी भी न कर पाया था कि खाना बीबी ने उसके गाल पर थप्पड़ दे मारा। चाय का प्याला उसके हाथों से परे जा गिरा और पूरा वातावरण कहकहों से गूंज उठा। लोगों को पागलों की भांति हँसते देख संध्या बाहर की ओर भागी और हांफती हुई गाड़ी चलाने को कह दिया और वह निशा की गोद में सिर रखकर रोने लगी।

वह अपनी माँ की यह दशा देखकर अपने मन से अधिकार खो बैठी। क्या वह उसी की जाई है? यह विचार आते ही उसकी आँखों के सामने अंधेरा छाने लगा। वह भयानक हंसी अब तक उसके कानों को छेद रही थी।

उस रात लज्जा से संध्या अपने घर नहीं गई और निशा के ही घर रही। यदि आनंद को पता चल गया कि वह वास्तव में रायसाहब की बेटी नहीं तो वह उसके विषय में क्या सोचेगा? कहीं यह बात उसके प्रेम मार्ग में दीवार बनकर खड़ी न हो जाए?

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