ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
वह मस्तिष्क की इन्हीं उलझनों में खोई बैठी थी कि किसी ने द्वार खटखटाया। आने वाले की पुकार सुनकर संध्या सहसा कांप गई। वह आनंद की आवाज थी।
'यह क्या पागलपन है?'
'घर चलो। सब तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।'
'आप चलिए - मैं कल सवेरे आ जाऊँगी।'
'पागल न बनो - बेला की बातों का बुरा मानना तुम्हें शोभा नहीं देता - वह तुम्हारी छोटी बहन ही तो है।'
'छोटी है इसीलिए तो यह बर्ताव है, बड़ी होती तो शायद मुझे घर से निकाल देती।'
'उसकी क्या मजाल जो पापा के होते हुए तुम्हें कुछ कह सके।'
'उसकी मजाल आपने शायद नहीं देखी। वह तो मुझसे यह भी कहती है कि आप उससे प्रेम करते हैं।'
'संध्या-’ वह क्रोध में चिल्लाया-'यह सब झूठ है, मेरी आँखों में तुम्हारे सिवा कोई नहीं। मैं कल ही रायसाहब से कहकर बात पक्की करवाता हूँ।' संध्या की आँखों में पल भर के लिए फिर उजाला आ गया। किसी धुंधली आशा पर मन-ही-मन मुस्कराई भी परंतु उसके मुख पर भावना प्रकट नहीं हुई। 'तो कब आओगी?' आनंद के इस प्रश्न ने उसे फिर होश में ला दिया। दो-एक क्षण चुप रहने पर वह बोली-
'कल सवेरे - आशा है आप भी वहाँ होंगे।'
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