ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
'ऐसे भाषण मैंने बहुत सुने हैं। सहारा वे लेती हैं जो डगमगा रही हों, मैं अपनी सुध में हूँ।'
'तुम मेरी बातों को दूसरी ओर लिए जा रही हो - कहीं तुम्हें ठीक मार्ग पर लाने के लिए मुझे पापा से न कहना पड़े।'
'पापा-पापा हर समय पापा - क्या कह दोगी - यही कि आनंद बाबू से बहुत घुल-मिल गई है।'
'हाँ, जो बात मैं न कहना चाहती थी वह तुमने स्वयं कह दी, मैं तुम्हें साफ-साफ कह दूँ कि तुम्हारा उनसे अधिक मेलजोल बहुत अच्छा नहीं लगता।' क्यों?
'इसका उत्तर देना मैं उचित नहीं समझती।'
'इसका उत्तर मैं देती हूँ - इसलिए कि तुम उनसे प्रेम करती हो।'
'बेला!' संध्या आवेश में चिल्लाई।
'सटपटा क्यों उठीं - दीदी तुम्हारे पहलू मे हृदय है तो क्या मेरे में हृदय नहीं।' बेला के इस गंभीर उत्तर ने संध्या को आश्चर्य में डाल दिया और वह फटी-फटी दृष्टि से उसकी ओर देखने लगी। बेला फिर कहने लगी-
'तुम्हें उनसे प्रेम है - तो सुनो वह मुझसे प्रेम करते हैं।'
'बेला!' संध्या ने आवेश में चिल्लाते हुए बेला के गाल पर थप्पड़ मारा। 'तुम्हारा यह साहस-’ वह क्रोध में बुडबुडाई-'जिसके टुकड़ों पर पलती हो उसी को आँखें दिखाती हो?'
'बेला-’ संध्या कांपते हुए बोली-'यह तुम क्या कह रही हो?'
'ठीक कह रही हूँ - अपनी स्थिति को देखकर हाथ उठाया होता।'
'तो क्या मैं-’
'हाँ-हाँ तुम हमारी बहिन नहीं - जाने किस भिखारी की-’
'बेला, बस आगे न कहो - मैं कुछ सुनना नहीं चाहती।' वह साड़ी को दोबारा लपेटते हुए बाहर की ओर भागी।
जैसे ही वह नीचे भागी बेला के हाथ-पाँव बर्फ हो गए। क्रोध में आज उसके मुँह से यह क्या निकल गया - पापा तो सुनते ही उसे मार डालेंगे - वह डर से कांपने लगी और धीरे-धीरे सीढ़ियों से उतरने लगी। नीचे संध्या रायसाहब का द्वार खटखटा रही थी। द्वार खुलते ही रायसाहब ने संध्या को चिंतित देख पूछा-
'क्यों बेटा, क्या बात है?'
'पापा, मैं तुम्हारी बेटी नहीं?'
'पगली कहीं की, यह भी भला कोई पूछने की बात है' उन्होंने उसके कंधे पर प्यार से हाथ रखते हुए कहा। मालकिन भी यह अनोखा प्रश्न सुन पास आ गईं।
'नहीं पापा - आप यह झूठ कह रहे हैं - आप मुझसे छिपा रहे हैं।'
'किस पगले ने यह तुमसे कहा?'
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