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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

उसके चले जाने पर क्षण भर के लिए कमरे में चुप्पी रही। दोनों एक-दूसरे को देखते रहे। संध्या मौन को तोड़ते हुए बोली-

'आनंद साहब! नींबू से कपड़ों पर लगे धब्बे तो चले जाते हैं परंतु सीने के दाग कभी नहीं जाते।' संध्या यह कहकर वापस लौट गई और आनंद देर तक खड़ा इन शब्दों की गूंज सुनता रहा।

जब वह गोल कमरे में आया तो सब अपना-अपना उपहार संध्या को दे रहे थे। वह भी उसके पास पहुँचा और जेब से एक सुंदर डिब्बा निकालकर उसके सामने रख दिया। इससे पहले कि वह उसे उठाती निशा ने बढ़कर उसे सबके सामने रख दिया। सब उस उपहार को देखने लगे। वह गले का एक सुंदर हार था। जिसके लॉकेट पर एक पक्षी खुदा था और नीचे लिखा था 'नीलकंठ'। निशा ने हार उसी समय संध्या के गले में डाल दिया। संध्या ने मुस्कराकर उसे स्वीकार करते हुए आनंद को धन्यवाद दिया।

वह इस प्यार भरे उपहार को पाकर बड़ी प्रसन्न थी परंतु इस प्रसन्नता में भी एक चिंता की रेखा स्पष्ट थी जो बेला और आनंद को इकट्ठे देखकर उभर आई थी। वह उस टीस को भूलने का प्रयास करने लगी किंतु वह बिखरे हुए उल्लास के फूलों में कांटा-सा बनकर खटकने लगी।

एक-एक करके सब अतिथि चले गए। घर की चहल-पहल खामोशी में परिवर्तित हो चुकी थी। सबसे अंत में जाने वाले आनंद और निशा थे। चाय-पार्टी के कारण रात का खाना किसी ने न खाया, इसलिए नौकरों को थकावट दूर करने के लिए अवकाश दे दिया गया।

काम-काज निपटाकर संध्या भी आराम करने वाले कमरे में चली गई। बेला अपने रात के वस्त्र पहन रही थी। संध्या को देख बीच-ही-बीच जलती हुई अपने काम में लगी रही। संध्या समझ रही थी कि वह अपनी आज की मूर्खता के कारण चुप थी, पर वह क्या जाने कि दूसरी ओर प्रेम का डाह 'अंगड़ाईयाँ' ले रहा है।

डाह अब केवल प्रेम का ही न था - बल्कि अपने अधिकारों का डाह भी। वह इस रहस्य को जान चुकी थी कि संध्या उसकी सगी बहन नहीं है और यह बात उसके माता-पिता ने छिपा रखी है। वह यह जानकर दीदी से और भी असावधानी बरतने लगी।

'बेला-’ संध्या ने नम्रता से पुकारा।

'हूँ-’ उसने दबे स्वर में उत्तर दिया।

'क्या मुझसे रूठ गईं।' साड़ी उतारते हुए संध्या ने पूछा।

'तुम्हें तो न जाने क्या हो गया है - हर बात उल्टी समझ रही हो।'

'बड़ी जो ठहरी जहां तुम्हें मार्ग से हटते देखूँ - सावधान करना अपना कर्त्तव्य समझती हूँ।'

'दूसरे को समझाना तो ठीक आता है - कभी अपने मार्ग को भी देखा है?' बेला क्रोध में झुंझलाते हुए बोली।

'देखा है - हर पग सोच-समझकर उठाती हूँ और फिर कभी मार्ग से हटने लगूँ तो माता-पिता समझा देते हैं।'

'देखो दीदी, मैँ अब कोई बच्ची नहीं हूँ जो तुम पुलिस वालों के समान मेरा पीछा करती रहती हो - तुम सोच-समझ से काम लेती हो मैं भी कोई अंधी और मूर्ख नहीं हूँ।'

'जवानी अंधी होती है। इसे भी संभालने के लिए किसी का सहारा लेना आवश्यक है।'

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