ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
छह
'दीदी-मम्मी कहाँ हैं?'
'रसोईघर में - और हाँ बेला, क्या हुआ तुम्हारे कॉलेज का?'
'दाखिला मिलने की आशा तो है - जन्म का सर्टिफिकेट मांगा है।'
'वह तो मिल ही जाएगा, चलो जरा मेज कुर्सियाँ लगा लें।'
'अभी आई दीदी-’ यह कहते हुए वह भीतर भाग गई।
संध्या को उसकी इस शीघ्रता पर हँसी आ गई।
आज संध्या का जन्मदिन था। आज वह पूरे बीस वर्ष की हो जाएगी। हर वर्ष की भांति रायसाहब उसका जन्मदिन अब भी मना रहे थे किंतु यह जन्मदिन पहले से भिन्न था, इसलिए कि इसे अवसर पर संध्या की सहेलियों के अतिरिक्त रायसाहब के कुछ मिलने वाले भी बुलाए जा रहे थे। इनमें आनंद भी था।
आनंद का ध्यान आते ही उसके होंठों पर हँसी खिल आई और वह गुनगुनाने लगी। रेनु और नौकर-चाकर भी उसकी प्रसन्नता में सम्मिलित थे और कमरों की सजावट में लगे थे।
बेला भी आज बहुत प्रसन्न थी। उसे बंबई में ही दाखिला मिल जाएगा और वह आनंद के निकट ही रह सकेगी। जब वह यह सोचती कि उसकी दीदी यह देखकर क्या कहेगी तो वह कुछ चिंतित-सी हो जाती फिर आनंद का मन जीतने के उल्लास में वह पागल-सी हो जाती।
अपना सर्टीफिकेट ढूंढने के लिए उसने डैडी की अलमारी खोल बीच वाली दराज की ताली लगाई और उनके रखे हुए पत्रों को टटोलने लगी। अचानक उसकी दृष्टि एक बंधे हुए छोटे से पुलिंदे पर जा पड़ी। जिस पर संध्या का नाम लिखा था। उल्लासपूर्वक उसने उसे खोलकर पढ़ना आरंभ कर दिया- क्या यह सच है - उसे अपनी आँखों पर विश्वास न आया और उसने उन्हें दोबारा पढ़ना आरंभ कर दिया।
संध्या उसकी सगी बहन न थी बल्कि जन्म से पूर्व उसके पापा ने उसे गोद लिया था। ये सरकारी प्रमाणपत्र थे - तो क्या दीदी किसी और की लड़की हैं - इस बात का विचार आते ही आश्चर्य में डूबी बेला के दांत क्रोध में कटकटाने लगे। उसने पत्रों को वैसे ही लपेट दिया और अपना सर्टिफिकेट ढूँढने लगी।
सर्टिफिकेट लेकर उसने अलमारी को वैसे ही बंद कर दिया और संध्या के विषय में विचार करती हुई बाहर आ गई। बाल्कनी की सीढ़ियों पर खड़े होकर उसने ध्यानपूर्वक संध्या को देखा जो नौकरों को साथ लिए गोल कमरे में मेज बिछवा रही थी। कितनी भिन्नता है दोनों के रूप में। कोई भी तो उन्हें सगी बहनें नहीं कह सकता - कितना अंतर है दोनों के विचारों और स्वभाव में - दोनों अलग-अलग वातावरण में पली हैं - फिर दोनों का चुनाव क्यों एक - दोनों आनंद से प्रेम करती हैं - कुछ ऐसे ही उलझे हुए विचार उसके मस्तिष्क मंो चक्कर काटने लगे, उसकी आँखों में डाह और द्वेष स्पष्ट था।
पांच बजते ही अतिथियों ने आना आरंभ कर दिया। पहले आने वालों में उसकी सहेली निशा और उसके संग उसकी दो और सखियां थीं। उसके पश्चात् संध्या के चाचा अपने बाल-बच्चों सहित आए। फिर आनंद और धीरे-धीरे दूसरे आमंत्रित लोग भी आने लगे।
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