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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

झरने के पास आनंद ने बेला की ओर फिराकर अपनी और उसकी इकट्ठी तस्वीर उतारी। आज जीवन में पहली बार इन घाटियों में आनंद ने विशेष आनंद अनुभव किया। वह पहले भी मित्रों के संग वह दृश्य देख चुका था किंतु आज की यह सैर सबसे अनोखी थी।

यहां से वह उस नदी के किनारे हो लिए जो पर्वतों से होकर इस झरने में परिवर्तित हो रही थी। थोड़ी दूर जाकर पानी छोटी-छोटी नालियों में बह जाता और स्वच्छ और निर्मल जल दर्पण की भांति चमक रहा था। बेला ने आनंद को खींचकर नदी में ले जाना चाहा पर वह गिरते-गिरते संभल गया और बोला-'डूबने का निश्चय किया है क्या?'

'जी - किंतु अकेले नहीं-’

'तो एक बात मानो-’

'क्या?'

'डूबने से पहले अपने जूते उतार लें।' आनंद ने दबे स्वर में कहा।

'आप ठीक कहते हैं, ये बेचारे भीग गए तो जीना कठिन हो जाएगा।' दोनों इस व्यर्थ की बातचीत पर हँस पड़े और अपने-अपने जूते उतार पास की एक झाड़ी में छिपा दिए। अपनी पैंटों को घुटनों तक ऊँचा कर वे पानी में उतर पड़े और उछलते-कूदते बच्चों के समान भागने लगे। दोनों संसार को बिल्कुल भूल चुके थे और एक-दूसरे की हृदय की धड़कन को जान गए थे। उनके मन में कामना का उठता हुआ तूफान उस हवा और बरखा के तूफान से किसी प्रकार कम न था।

वे पागलों की भांति उस ठंडे, स्वच्छ और निर्मल जल की धारा को लांघते हुए बढ़ गए। उनके चलने से पानी के छींटे उछलकर उनके मुख को चूमने लगी तथा ओस-कणों की भांति उनके कपोलों पर आ ठहरती। उनके टूटने पर लगता मानों मन की भावनाएँ और अभिलाषाएँ बुलबुले से बनकर आपस में टकराती और मिलते ही ओझल हो जातीं।

थोड़ी दूर पत्थर की सुंदर सीढ़ियाँ देख दोनों रुक गए जिससे झर-झर करता हुआ जल बड़ा सुहावना लगता था। बेला के प्रश्न करने पर आनंद ने बताया कि यह पानी एक बड़े जलाशय में एकत्रित होता है और वर्षा ऋतु में भरकर सीढ़ियों पर से झलकता है।

एक गर्जन हुई और बेला आनंद से लिपट गई। सफेद और घने बादलों के झुंड ने उन्हें घेर लिया। भरपूर प्याले छलक पड़े। आनंद ने अपने जलते हुए होंठ बेला के होंठों पर रख दिए। वह मछली के समान तड़पी और गुत्थमगुत्था होकर उसकी बाहों में मचलकर रह गई।

बादल छंट गए, दोनों ने एक-दूसरे को देखा। उनकी आँखों में लाल रेखाएँ झलक रही थीं। बेला के होंठों पर दबी मुस्कान स्पष्ट हुई और वह आनंद की बाहों से निकलकर सीढ़ियों की ओर भागी। आनंद लपकते हुए चिल्लाया-’बेला! बेला! रुक जाओ-गिर पड़ोगी।'

बेला ने सुनी-अनसुनी कर दी और भावना के प्रवाह में उन सीढ़ियों पर भागकर चढ़ने लगी जिनसे तेज गति से पानी झर-झर कर बह रहा था। काई के कारण उन पर फिसलन के कारण पाँव का ठहरना कठिन था। दो बार सीढ़ियां ऊपर चढ़ने पर बेला फिसलकर धड़ाम से आ गिरी।

आनंद ने लपककर उसे थाम लिया और वे फिसलते-फिसलते बचे।

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