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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

बेला को और क्या चाहिए था। वह झट बोली-'कहते तो आप ठीक हैं- परंतु क्या यह भी मानेंगे?'

'क्यों नहीं - और घर में बैठा-बैठा क्या करेगा?' स्टेशन मास्टर आनंद की ओर देखते हुए बोले।

यह सोचकर कि इसी बहाने इतवार का दिन अच्छा बीत जाएगा, आनंद ने भी सहमति दे दी और दोनों तैयार होने लगे।

आनंद ने माँ को खाने-पीने का सामान तैयार करने को कह दिया और उन स्थानों का स्मरण करने लगा जों वह बेला को दिखाना चाहता था। उसे संध्या का ध्यान आया जो उसे कई बार कह चुकी थी कि विवाह के पश्चात सुंदर पर्वतों के प्राकृतिक जीवन में शहर के बनावटी जीवन को भूल जाएँगे। इसका विचार आते ही वह क्षण भर के लिए एक अन्जान डर से कांप गया।

आज भी आकाश बादलों से घिरा हुआ था। काले-काले बादलों के नन्हें-नन्हें टुकड़े पहाड़ियों में उड़ते हुए बड़े भले लगते थे। जहाँ भी वे जाते धुंध छा जाती। बेला व आनंद इन्हीं बादलों में खोये अनजान मंजिल की ओर बढ़े जा रहे थे। बेला आज अंग्रेजी ढंग के वस्त्र पहने हुए थी। सफेद धुंध में नीली पैंट और ब्लाउज मैं वह अति सुंदर दिखाई दे रही थी। कभी-कभार जान बूझकर वह किसी पत्थर से टकराकर गिरने लगती तो तुरंत आनंद बढ़कर उसे बाहों में संभाल लेता और दोनों एक-दूसरे का स्पर्श करते ही मुस्करा उठते। इसी खेल में आनंद के होंठों की मुस्कान उसके हृदय की धड़कन बन जाती और व्याकुलता से बंद पक्षी की भांति वह उड़ने के लिए फड़फड़ाने लगता - वह सोचने लगता कि कितना अंतर है दोनों में - एक जल कण थी और दूसरी ज्वाला। यदि संध्या से पहले उसकी भेंट हो गई होती तो-तो-

'महाशय! किस विचार में खोये हैं' बेला के इन शब्दों ने उसे चौंका दिया। वह उस पुल की ओर बढ़ा जिसके जंगले का सहारा लेकर बेला खड़ी थी। 'बेला' आनंद ने उसके समीप आकर धीमे स्वर में कहा।

'कहिए' वह जेब का रेशमी रुमाल निकाल सर पर बाँधते हुए बोली। 'कहीं तुम्हारे घरवालों को पता चल गया तो कितनी बड़ी भूल का शिकार हो जाएँगे।'

'तो क्या हुआ', उसने असावधानी से उत्तर दिया, 'उसे सुलझाना भी तो हमारा ही काम है।'

'ठीक कहती हो - किंतु सुलझाते-सुलझाते प्राय: पूरा जीवन नष्ट हो जाता है। 'इसीलिए तो किसी ने कहा है कि जीवन बहुत छोटा है इसे जैसे भी बन पड़े अच्छा व्यतीत करो।'

'अच्छा तुम ही कहो क्या करना चाहिए?'

'बीता समय भूल जाओ और भविष्य में क्या होगा यह बात सोचो।' 'तो फिर?'

'यह सोचो अब क्या है?' वह बात बदलते बोली,'यह देखो नदी का जल यों लग रहा है मानों किसी ने चांदी बिखेर दी हो। मलगजी रंग के बादल अपने पहलू में जल-कण छिपाए किसी के चुम्बन को व्याकुल हैं और एक आप हैं कि-‘

'क्या?' वह विस्मय-सा उसकी ओर देखते हुए बोला।

'यह शिथिलता - यह मौन - जैसे पहलू में कोई दिल न हो। अब आँखों में उन्माद-सा लाकर बोली। आनंद ने यों अनुभव किया जैसे कोई अज्ञात शक्ति उसे अपनी ओर खींच रही है।

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