ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
पांच
अभी सूर्य की किरणों ने सोना न बरसाया था किंतु चह-चहाते हुए पक्षियों ने अपना संदेश सुनाना आरंभ कर दिया था। माँ ने उठते ही बेला को उठाना चाहा पर वह यौवन की निद्रा में यों बेसुध थी मानों वर्षों से सो रही हो। माँ ने जब पूना जाने वाली गाड़ी का वर्णन किया तो वह अर्ध-नग्न अवस्था में बोली-'माँ जीं-नींद बहुत आई है, मुझसे उठा न जाएगा।'
'तो गाड़ी छूट जाएगी।' माँ ने समीप होकर कान में कहा।
'तो क्या हुआ, साँझ की गाड़ी पकड़ लूँगी।'
बेला के इस उत्तर पर उसे हंसी आ गई। उसी समय आनंद ने उसकी हंसी सुनकर भीतर प्रवेश किया और कहने लगा-'माँ जी, ये आधुनिक तितलियाँ यों न जागेगी इन्हें बेड-टी चाहिए।' आनंद का स्वर सुनते ही बेला निद्रा में चौकन्नी हो गई। माँ बाहर चली गई तो आनंद बोला-
'मेम साहब, उठिए - कहीं पूना-’
'पूना-पूना, जाना तो मुझे है और चिंतित आप लोग हैं।' आँख खोलकर कड़े स्वर में वह बोली। उसके कड़ेपन में भी एक माधुर्य था जिसने आनंद को मौन कर दिया और वह मूर्ति बना उसके वक्ष के उभार को देखने लगा जो अंगड़ाई लेते समय सौंदर्य का केन्द्र-सा बन गया।
काले रंग के अंग्रेजी ढंग के ब्लाउज और गरारे पर काली चुनरी जिसमें मुकेश के टुकड़े यों लग रहे थे मानों अंधेरी रात में आकाश पर तारे। उसका गोरा और गोल मुख चन्द्र की भांति दृश्य की शोभा बढ़ा रहा था।
सादापन आनंद को बहुत प्रिय लग रहा था किंतु न जाने आज बेला को देख क्यों उसके विचार डगमगाने लगे - उसे अपने फीके जीवन में एक अज्ञात मिठास अनुभव होने लगी जो बार-बार उनके मन को गुदगुदा रही थी। वह नशे में इतना बेसुध था कि यह भी न देख सका कि बेला उसे कब से घूरे जा रही है और उसे मूर्ति बने देख अपनी सफलता पर गर्व कर रही है।
यह देख वह कांप-सा गया और मुख दूसरी ओर मोड़कर बोला-
'इसमें प्रसन्न होने की क्या बात है? तुम्हें पूना तो जाना ही है।'
'वह तो मैं भी जानती हूँ परंतु नदी पर आकर प्यासी लौट जाने को जी नहीं चाहता।'
'क्या?' वह इस पर फिर कुछ घबरा सा गया।
'जी चाहता है खंडाला के पर्वतों में घूमूं-फिरूं, न जाने ऐसा अवसर फिर कब मिले?'
'पर तुम्हें तो सहेली के विवाह पर जाना है।'
'कल - आज की छुट्टी - और फिर ऐसा अवसर कभी हाथ न आएगा।' 'जलपान करते समय भी बेला ने सवेरे की गाड़ी पर न जाने का कारण यह बताया कि वह खंडाला के आस-पास के स्थानों को देखना चाहती है। उसे अकेला देख आनंद के पिताजी बोले-
'बेटी! मेरी या आनंद की माँ की बूढ़ी हड्डियों में तो अब इतना साहस है नहीं कि तुम्हारा साथ दें - यदि चाहो तो आनंद को संग ले जाओ।'
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