ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
'बेला रात को कहाँ ठहरेगी?' यह प्रश्न बार-बार आनंद की चिंता को बढ़ाने के लिए उसके मस्तिष्क के पर्दों से टकरा रहा था। उसके माता-पिता पुराने विचारों के व्यक्ति थे। इतनी रात में उसके संग इस आधुनिक तितली को देखकर वे कुछ और न समझ बैठें। अभी तो उसे उन्हें संध्या के लिए मनाना है। वह बड़ी उलझन में था कि क्या करे। उसने दो-एक बार बेला को समझाते हुए कहा कि उसका पूना जाना ही उचित था किंतु वह कहाँ मानने वाली थी। हठ और फिर यौवन का हठ, उसे तोड़ना सरल न था।
गाड़ी अपनी पूरी गति से दौड़े जा रही थी। आनंद व्यग्र और मौन खिड़की से बाहर घनघोर घटाओं को देख रहा था और बेला उसके मुख को जिस पर चिंता की रेखाएँ स्पष्ट थीं। आनंद कभी-कभी छिपी दृष्टि से बेला को देख लेता तो उत्तर में हल्के से मुस्करा देती।
'आप बाहर क्या देख रहे हैं।' बेला निस्तब्धता भंग करते हुए बोली। 'इन उमड़ती हुई घटाओं को।'
'तो इधर भी देखिए?'
'कहाँ?' आनंद विस्मित-सा बोला।
'हमारी ओर! हमारे मन में भी तो तूफान उमड़ रहे हैं।'
'तूफान और तुम्हारे मन में? कैसा सुंदर विचार है', यह कहते ही वह जोर-जोर से हँसने लगा जैसे उसके इस विचार का उपहास कर रहा हो। बेला क्रोध को अपनी बेबस आँखों में छिपाने का प्रयत्न करने लगी जो आनंद से इस समय हँसी का कारण पूछ रही थी।
उसके भावों को भांपते हुए आनंद बोला-
'बेला! भंवर में फंसी नाव भी मन में तूफान रखती है - यह मैं आज ही समझ पाया।'
यह कहते ही वह अपनी सीट छोड़ उसके समीप आ गया और उसके बालों में स्नेह से हाथ फेरने लगा जैसे किसी बालक को प्यार कर रहा हो। कुछ क्षण पश्चात् दबे और अस्पष्ट शब्दों में बोला-
'मन में तूफान रखती हो या कामना - यह तो मैं नहीं जानता। हाँ, आँखों में वह बिजली अवश्य है जो घटा में छिपी रहती है।'
और तभी गाड़ी एक सुरंग से गुजरने लगी। अंधेरा होते ही बेला की हल्की-सी चीख निकल गई और वह आनंद से लिपट गई। घुप्प अंधेरे में गाड़ी की गड़गड़ाहट और इंजन की सीटी के शोर में दोनों के हृदय की धड़कन स्पष्ट सुनाई दे रही थी। गाड़ी के सुरंग से बाहर निकलते ही अंधेरे का स्थान उजाले ने ले लिया। आनंद ने देखा, वह सहमी-सी अपने सिर को उसके वक्ष पर टिकाए और उसके हाथ बेला के कंधों को आश्रय दिए हुए हैं।
ज्यों ही आनंद ने हाथ हटाए बेला ने उसकी उंगलियों को अपने हाथों में जकड़ लिया और धीमे से बोली-
'इस उजाले से तो अंधेरा ही अच्छा था?'
'कैसे?' 'भूले से किसी को सहारा जो दे दिया।'
इसके साथ ही वह प्यार से आनंद का हाथ पकड़ उसकी उंगलियों को धीरे-धीरे दांतों से काटने लगी। आनंद मौन और चकित उसकी भावनाओं को देखे जा रहा था। उसने लड़कियों का यह साहस और हाव-भाव अंग्रेजी फिल्मों में तो देखा था किंतु निजी जीवन में किसी युवती को यूं भावना में आपे से बाहर होते आज ही देखा था।
गाड़ी ने फिर एक सुरंग में प्रवेश किया - फिर अंधेरा छा गया और उसके साथ ही आनंद के हृदय की धड़कन तेज हो गई। न जाने अब की बार यह अंधेरा क्यों डरा रहा था।
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