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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

'ज्यों-ज्यों बेला उसके समीप हो रही थी उसके शरीर में सिहरन-सी होने लगी। सुरंग अधिक लंबी थी - घोर अंधेरे में बेला का शरीर आनंद को यूं लगा जैसे दहकते हुए अंगारे। बेला ने फूले श्वास से दबे शब्दों में पुकारा-'आनंद!' 'हूँ।' आनंद ने बंद होंठों से ही उत्तर दिया।

'फिर अंधेरा छा गया।' बेला ने फिर कंपित स्वर में कहा।

'तो क्या हुआ?'

'कहीं मैं इस घोर अंधेरे में डूब गई तो?'

'मेरा हाथ पकड़ लेना - तुम्हें आश्रय मिल जाएगा।'

'क्या भरोसा?'

'मेरा अथवा तुम्हारा! तुझे तो डर लग रहा है कि कहीं सहारा लेते-लेते मुझे भी न ले डूबो।'

'हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी ले डूबेंगे' यह तो आपने सुना ही होगा। 'सुना तो है पर देखा नहीं अभी तक।'

'तो यह भी देख लोगे।' बेला ने चंचलता से उत्तर दिया। वह कुछ और कहने ही को थी कि उजाले की किरणों ने फिर से कमरे में प्रकाश कर दिया। गाड़ी की गति पहले से कुछ धीमी पड़ गई थी। कदाचित कोई स्टेशन निकट आ रहा था। आनंद ने अनुभव किया अंधेरे का सहारा ले बेला उसके अधिक समीप आ चुकी थी।

आनंद धीरे से उठकर परे जा बैठा। वह उसकी इस चेष्टा पर मुस्करा पड़ी और खिड़की खोल फिर से बरखा के छींटों का आनंद प्राप्त करने लगी। आनंद भी मौन् बैठा उसे निहारने लगा। गाड़ी रुक गई। बेला ने बाहर झांककर देखा - डिब्बा प्लेटफॉर्म से बाहर था और अंधेरे में प्रयत्न करने पर भी वह न जान सकी कि वह कौन-सा स्टेशन है। उसने तीखी दृष्टि से आनंद को देखते हुए पूछा- 'कितनी दूर है तुम्हारा खंडाला?'

'जी - खंडाला का नाम सुनते ही वह सिर से पाँव तक कांप उठा, मानों यह नाम लेकर किसी ने उसके मस्तिष्क पर हथौड़ा दे मारा हो। वह अपनी घबराहट को होंठों की मुस्कान में गुम करते हुए बोला-'कदाचित अगला स्टेशन है।' इंजन ने सीटी दी।

'कदाचित, क्या आप विश्वास से नहीं कह सकते', बेला ने खिड़की से बाहर प्लेटफॉर्म को देखते हुए पूछा जो अब पीछे छूट गया था।

इस उत्तर पर बेला खिलखिलाकर हंस पड़ी और उसकी हंसी की गूंज रेल की गड़गड़ाहट में खो गई। गाड़ी सिगनल के पास पहुँचकर अपनी पुरानी गति पकड़ चुकी थी।

'जब अपने आप पर विश्वास उठ जाए तो जानते हैं क्या करना चाहिए?' बेला ने कुछ क्षण पश्चात् पूछा।

'क्या?' आनंद होंठ सिकोड़ थोड़ा समय चुप रहकर बोला।

'किसी का आश्रय लिया जाता है कि ठोकर न लग जाए।'

'किंतु इस वन वे में किसका आश्रय लूँ?'

'मेरा!' बेला ने दृढ़ता से कहा। आनंद उत्तर में केवल मुस्करा दिया जैसे उसकी दृष्टि बेला से यह प्रश्न कर रही हो, आश्रय - और वह भी तुम्हारा। एक पुरुष एक स्त्री का आश्रय ले, क्या व्यर्थ विचार है।

डिब्बे में फिर अटूट चुप्पी छा गई जैसे दोनों के शब्दों का प्रवाह रुक-सा गया हो। दोनों की दृष्टि आपस में टकराकर एक-दूसरे के मन में हलचल सी उत्पन्न कर रही थी। बरखा की तूफानी रात, गरजन का शोर और उसमें दो प्रेममय हृदयों की धड़कन का खो जाना।

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