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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

'और मुझे भी विश्वास नहीं आ रहा कि आप यह सब सत्य कह रहे हैं अथवा मुझे अकेला देखकर बहका रहे हैं।'

बेला का उत्तर सुन आनंद जरा घबरा-सा गया और फिर संभलते हुए बोला-

'देखिए! आपको ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम इस यात्रा में अकेले जरूर हैं किंतु भय आप से अधिक मुझको है।'

'वह कैसे?' बेला ने दृष्टि उठाते हुए पूछा।

'इसलिए कि आप अपनी सीट छोड़ मेरे निकट आने का प्रयत्न कर रही हैं - मैं नहीं।'

'ओह - मैं समझी।' वह सीट से उठने का एक व्यर्थ प्रयत्न करते हुए बोली। 'मेरा आशय यह न था इससे।'

वह मुस्कराकर फिर वहीं बैठ गई। बार-बार दृष्टि उठा आनंद के चिंतित मुख को देख रही थी। जो एक विचित्र उलझन में पड़ा था। थोड़ा समय चुप रहने के पश्चात् जब कोई न बोला तो बेला ने हाथ बढ़ाकर शीशा गिरा दिया। पानी के छींटों की बौछार बेला के मुँह पर पड़ी। आनंद हटकर दूर बैठ गया और बेला से बोला-

'देखिए मिस साहिबा! पानी भीतर आ रहा है।'

'आप सामने की सीट पर बैठ सकते हैं।'

'और आप?'

'मुझे पानी के छींटे बहुत प्रिय हैं।' बेला अपने मुख को खिड़की के और समीप ले जाते हुए बोली। पानी के छींटे उसके कपोलों पर जलकण बन मोतियों के समान चमकने लगे। इस अनोखे खेल में वह आनंद अनुभव कर रही थी। बौछार पड़ते ही वह हँसने लगती। आनंद को उसका यह बालपन अच्छा न लग रहा था। उसने एक-दो बार उसे कुछ कहना भी चाहा किंतु शब्द उसके मुँह में ही रुक गए।

'एक बात पूछ सकती हूँ।' कुछ समय पश्चात् बेला ने मौन को तोड़ते हुए पूछा।

'अवश्य।' आनंद ने अपनी सिहरन को छिपाते हुए उत्तर दिया।

'तो आपने कैसे जाना कि मैं कुँवारी हूँ।'

'तो क्या मेरा यह समझना भूल थी।'

'संभव है।'

'यदि आप इसे अशिष्टता न समझें तो मैं भी कुछ पूछ सकता हूँ।'

'अवश्य।' बेला ने उसी मुद्रा में उत्तर दिया।

'आपके पतिदेव का शुभ नाम।' आनंद ने दबे स्वर में पूछा।

'कदाचित आप भूल गए हैं कि हिन्दू स्त्रियाँ अपने पति का नाम नहीं लेतीं।'

'ओह, तो आप भी इन रूढ़ बातों को मानती हैं।'

'जी! किंतु थोड़े परिवर्तन के साथ।'

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