ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
वह तेजी से बस्ती की ओर बढ़ा जा रहा था। सड़क के दोनों ओर बवंडर की सख्ती के चिह्न बिखरे हुए थे। गिरे हुए बिजली के खम्भे, टूटे मकान, उखड़े हुए पेड़, कोई प्रलय थी जो बम्बई में आई थी।
कहीं रात संध्या की टैक्सी को कुछ न हो गया हो। यह विचार आते ही आनन्द के शरीर में कंपकंपी होने लगी। तूफान थम चुका था किंतु समुद्र में मची हलचल जारी थी। सांय-सांय करती हवा अभी पानी को उछाल रही थी। मोटर बस्ती के फाटक में आई। वहाँ की हालत देखकर आनन्द विस्मित रह गया। फाटक के एक ओर की दीवार ढेर हो चुकी थी।
वह गाड़ी को लेकर कारखाने की ओर मुड़ा। कारखाने की छत और दीवारें टूट-टूटकर धरती से मिल रही थीं। उसने गाड़ी एक ओर रोक दी और लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ उधर बढ़ने लगा जहाँ मजदूरों का जमघट था। चारों ओर निस्तब्धता छा रही थी। इतनी भीड़ होते हुए भी वहाँ सन्नाटा था। लग रहा था जैसे वह मुर्दों की बस्ती में चला आया हो।
उसकी घबराहट बढ़ गई। तेजी से चलते हुए भी उसे अनुभव हो रहा था कि जैसे उसकी टांगें कांप रही हों। उसने दो-चार खड़े मजदूरों से संध्या की कुशलता पूछी किंतु किसी ने उत्तर न दिया और मूर्ति बने उसे देखते रहे। रात के तूफान ने उन्हें इतना गंभीर बना दिया था कि वे अपनी चिंताएँ प्रकट करना भी नहीं चाहते थे।
जैसे ही वह भीड़ के पास पहुँचा - मजदूरों ने हड़बड़ाई आँखों से उसे देखा और गर्दनें झुकाकर एक ओर हट गए। उसने भी इस मौन को तोड़ना उचित न समझा और उसी गंभीरता के साथ वहाँ जा पहुँचा जहाँ खान पाशा और सुंदर खड़े थे। उनके चेहरों पर घोर उदासी थी। उसको देखते हुए खान पाशा की डरावनी चीख निकल गई।
आनन्द सब समझ गया। भीड़ एक ओर हट गई और दृश्य साफ हो गया। खान पाशा गिरते-गिरते संभला। सुंदर ने उसे पकड़कर दीवार के एक गिरे पत्थर पर बिठा दिया। भीड़ के बीच सफेद कपड़े से ढंकी किसी की लाश पड़ी थी। जिसके सिरहाने खाना बीबी अपने बाल नोच-नोचकर रो रही थी। वह समझ गया कि यह अभागिन कौन है। वह लाश पर झुका और उसके चेहरे से कपड़ा हटा दिया।
संध्या का मौन बर्फ के समान सफेद चेहरा देखकर उसका रक्त-संचालन रुक गया। उसे लगा जैसे किसी ने उसे जलती भट्टी से निकालकर एकाएक बर्फ के ढेर से दबा दिया है। उसने एक दृष्टि चारों ओर दौड़ाकर देखा। सबकी आँखें भीग रही थीं। यह सब कैसे हुआ? क्योंकर हुआ? कब हुआ - वह कुछ भी न जानना चाहता था जैसे पहले से ही सब जानता था। वह घुटनों के बल वहीं झुक गया और उसने संध्या की लाश अपनी बाहों में उठा ली।
वह लाश को उठाकर घर की ओर बढ़ा और भीड़ सिर झुकाए चुपचाप उसके पीछे हो ली। कारखाने में लगी मशीनें अजगर बनकर झांक रही थीं - तबाही और बर्बादी के सिवाय वहाँ कुछ न था।
इस बर्बाद बस्ती में संध्या का छोटा-सा मकान केवल वैसे का वैसा खड़ा था। उसकी छत के नीचे अब भी कितने ही मजदूर आश्रय ले रहे थे। मकान के ऊपर खुदा 'नीलकंठ' का शब्द देखते ही आनन्द का दिल डूबने लगा - उसके हाथ में नीलकंठ के जन्मदाता का शरीर था - उसका जी चाहा कि वह बोझ उठाए इसी धरती में समा जाए।
उसने लाश लाकर बरामदे के चबूतरे पर रख दी और स्वयं चुपचाप एक ओर बैठ गया।
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