ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
संध्या ने पास बैठ उसे पुकारा तो दोनों की आँखों में से एक साथ आँसू छलक पड़े, जैसे किसी भरे हुए प्याले में छिपी प्रसन्नता भी झांक रही थी। 'मैं समझी, दीदी कभी न आएंगी।'
'वह क्यों? क्या अपने भी छोड़ जाते हैं-’
'अच्छा हुआ तुम आ गईं वरना शायद हम एक-दूसरे को कभी-’
'चुप पगली' - संध्या ने उसके मुँह पर हाथ रख दिया और उसका हाथ अपने हाथों में लेकर प्यार से कहने लगी, 'ऐसी बातें मुँह पर नहीं लाते - माँ बनना है अब तुम्हें - अच्छी बातें सोचा करते हैं - अशुभ विचार दूर रखने पड़ते हैं - ला तेरा हाथ देखूँ, अरे तेरी आयु तो सौ वर्ष की होगी - देख जीवन रेखा कितनी लंबी है।'
'और तुम्हारी?' बेला ने संध्या का हाथ देखना शुरु कर दिया।
इस पर दोनों की हल्की-सी हँसी गूंजी। दोनों ने कनखियों से झाँककर देखा। आनन्द के उदास मुख पर भी रौनक छा रही थी।
दोनों बहनों को एक संग हँसते देख आनन्द को लगा जैसे वह गंगा-यमुना के संगम पर खड़ा दोना नदियों का मिलन देख रहा हो। उसकी अपनी आँखों में भी प्रसन्नता के आँसू छलकने लगे। वह उन्हें रोक न सका और तेजी से दोनों को छोड़कर बाहर निकल गया।
वह उसी खम्भे का सहारा लेकर आसमान पर छाए काले बादलों को देखने लगा। बादल और घने हो चुके थे। हवा बंद थी - बाल्कनी के सामने असीम समुद्र बिल्कुल मौन था।
बेला को ऑपरेशन-कक्ष में ले जाया गया। संध्या और आनन्द उसे धैर्य देते हुए बाहर आ ठहरे। उसके मुँह में धीरज के शब्द थे, होंठों पर मुस्कान थी किंतु भीतर से दोनों के मन भय से डूबे जा रहे थे।
ऑपरेशन-कक्ष के द्वार बंद हो गए। दोनों दूर तक फैले समुद्र को देखने लगे। जिसमें सिक्का भरा प्रतीत हो रहा था। वातावरण में एक घुटन-सी थी। हवा के कुछ झोंकों ने वातावरण में एक हल्की-सी फुरहरी-सी भर दी, दोनों के घुटे दिलों को कुछ अवकाश मिला। संध्या ने बाल्कनी से नीचे सिर लटका दिया और हवा के झोंकों का आनन्द लेने लगी।
थोड़े समय पश्चात् हवा की गति तेज हो गई। दूर से सांय-सांय की आवाज होने लगी मानों इस गुम वातावरण की पूर्ति किसी तूफान से होने वाली हो। अंधेरे में फैला हुआ समुद्र साफ दिखाई दे रहा था, परंतु उसमें दूर से हलचल के चिह्न प्रकट हो रहे थे।
एकाएक हवा के तेज झोंके अस्पताल की ऊँची दीवारों से टकराकर शोर मचाने लगे। समुद्र में पानी की की उछालें बढ़कर आकाश छूने का प्रयत्न करने लगीं।
तूफान का जोर बढ़ता ही गया। सहसा संध्या को अपने कारखाने का ध्यान आया। जहाँ रात की शिफ्ट चल रही थी। दिन को काम करने वाले मजदूर पास ही छोटी घास-फूस की झोपड़ियों में डेरा डाले सो रहे होंगे - उनका क्या होगा - उसका विचार था कि आगामी वर्ष में उनके लिए छोटे-छोटे मकान बनवा देगी। घास-फूस के घर अस्थायी प्रबंध था।
कारखाने की छत भी तो खपरैल की ही थी, क्योंकि आरंभ में इमारत बनाने के लिए कंपनी के पास धन का अभाव था। एक तो अस्थाई और कच्चा, दूसरा समुद्र से इतना निकट तूफान का जोर सहन करना बड़ा ही कठिन था। संध्या ने अपनी बेचैनी आनन्द पर प्रकट की तो वह उसी समय मोटर लेकर वहाँ जाने को तैयार हो गया परंतु संध्या ने उसे रोक दिया। ऐसे समय में उसका अस्पताल में होना सबसे आवश्यक था। सहसा दूर एक मलबा दिखाई दिया। कहीं किसी इमारत पर बिजली की तारे आग पकड़ गईं और देखते-ही-देखते लपटें आकाश से बातें करने लगीं। हवा के झोंकें आग उखाड़कर फैलाने लगे। ऐसा लगता था कि यह प्रचण्ड देवी शहर-भर की आहुति मांगती है।
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