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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास


बाईस

आनन्द फरामजी नर्सिग होम की बाल्कनी में खड़ा रात के फैलते हुए अंधकार को देख रहा था। यों तो नर्सिंग होम में चारों ओर बिजली के लट्टू जगमगा रहे थे किंतु आनन्द की दृष्टि रात की कालिमा को चीर रही थी। आज की रात उसके लिए जीवन या मरण की रात थी। आज बेला का ऑपरेशन होना था। पेट में बच्चे की स्थिति कुछ इस प्रकार थी कि बिना ऑपरेशन उसका जन्म बहुत कठिन था। माँ और बच्चे दोनों के प्राणों का संकट था। डॉक्टर ऑपरेशन की तैयारियाँ कर रहे थे। बेला बिस्तर पर लेटी पीड़ा से कराह रही थी। रायसाहब और मालकिन उसके पास बैठे थे। आनन्द ने ऑपरेशन की सूचना संध्या को दे दी थी। उसने आने का प्रण भी किया था, उसे विश्वास था कि वह अवश्य आएगी।

आनन्द की दृष्टि बार-बार ऊपर आती लिफ्ट की ओर जाती। किंतु संध्या को न देख वह उदास हो जाता। इस चिंताजनक रात को उसे संध्या के सहारे की बड़ी आवश्यकता थी। उसके बिना वह इस स्थिति में खुद को अकेला-सा अनुभव कर रहा था।

'हो सकता है उसने उसका मन रखने को ही प्रण कर लिया हो। जब से वह उसके घर से आया था वह एक बार भी बेला को देखने न आई थी - यह सोचकर उसकी उदासी और बढ़ जाती किंतु आशा को न छोड़ते हुए बराबर सीढ़ियों और लिफ्ट की ओर देखता रहा।

उसे निराश न होना पड़ा। ऑपरेशन से एक घंटा पूर्व संध्या सीढ़ियों से चढ़कर धीरे-धीरे ऑपरेशन-थियेटर की ओर आ रही थी। आनन्द ने उसे दूर से आते देखा तो उसके मुख पर प्रसन्नता दौड़ गई।

आज संध्या को वह एक अलौकिक रंग में देख रहा था। अंधेरी रात और' बरामदे में हल्की बिजली की रोशनी में उसका मुख यों प्रतीत हो रहा था जैसे चांद धीरे-धीरे धरती पर उतर रहा हो। आज वह सादी और सफेद साड़ी में सुसज्जित थी जिसमें उसका रूप पहले से कहीं बढ़कर निखरा हुआ था।

ज्यों ही वह स्तम्भ के पास से गुजरी जिसकी ओट में आनन्द उसकी प्रतीक्षा कर रहा था उसके पांव एकाएक रुक गए। दोनों ने मौन दृष्टि से एक-दूसरे को देखा और ठिठककर रह गए।

'मैं तो समझा था शायद-’

'मैं न आ सकूँ' - संध्या ने बात काटते हुए उत्तर दिया-’ऑपरेशन में तो शायद अभी एक घंटा शेष है।'

'हाँ - समझ नहीं आता क्या होने वाला है।'

'अधीर मत होइए - सब ठीक हो जाएगा - कहाँ है बेला?'

'सामने कमरे में' आनन्द ने धीमे स्वर में कहा और दोनों उस ओर चल दिए। 'कोई और आया?' संध्या ने प्रश्न किया।

'रायसाहब और मम्मी।'

'कहाँ है?'

'नीचे रिसेप्शन हॉल में - यहाँ से ही गए हैं।' ओह-

दोनों ने बेला के कमरे में प्रवेश किया। वह पत्थर की मूर्ति के समान बिस्तर पर लेटी थी। नर्स उसका नाप ले रही थी। आहट पाकर बेला ने आनन्द और संध्या को सामने देखा तो उसके होठों पर मुस्कान खिल आई। उसे आशा थी कि दीदी उसे देखने अवश्य आएगी। संध्या भी कोई पुरानी बात दोहराने नहीं आई थी बल्कि उसका साहस बढ़ाने आई थी। उसने बेला की लज्जा से झुकी दृष्टि को देख लिया था।

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