ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
घड़ी रात के ग्यारह बजा रही थी। बेला पलंग से उठी। उसने द्वार खोल बाहर झांका। पापा के कमरे से छन के आते हुए उजाले से उसने अनुमान लगाया कि वह अभी सोए नहीं।
धीरे-से दबे पाँव वह सीढ़ियाँ उतर गई और बाथरूम की ओर चल दी। जैसे ही उसने बत्ती जलाने को हाथ बढ़ाया वह सिहर उठी। उसकी दृष्टि द्वार के शीशों से बाग में छिपे सीमेंट की बेंच पर पड़ी। आनंद व संध्या एक-दूसरे के आलिंगन में बंधे थे। छिटकी चाँदनी में दो यौवन मदमातों को यूँ देख बेला को रोमांच हो आया और कुछ ही क्षणों में ज्वाला भड़कने लगी। आखिर दीदी को इतनी स्वतंत्रता क्यों? तो क्या दीदी आनंद से प्रेम करती हैं? और मेरा उसके साथ जाना उनकी स्वतंत्रता में बाधा थी। सबको तो शिक्षा देती हैं किंतु स्वयं तो-' और न जाने यूं ही कितने प्रश्न उसके मस्तिष्क में मंडराने लगे। किंतु प्रत्येक प्रश्न उसके हृदय-पटल पर द्वेष की एक गहरी रेखा अंकित कर गया। जैसे ही आनंद ने संध्या के होंठों को छुआ, बेला के शरीर में फुरेरी सी दौड़ गई और उसने आँखें बंद कर लीं। उसने भी अपने होंठों पर जलते अंगारे अनुभव किए। कुछ समय पश्चात् जब उसने अपनी आँखें खोलीं तो देखा कि वह दोनों बेंच छोड़कर द्वार की ओर बड़े जा रहे थे। बेला दबे पाँव अंधेरे में छिप गई।
'तो अब जाऊँ क्या?' आनंद ने संध्या का हाथ छोड़ते हुए कहा।
'मन तो नहीं चाहता परंतु-'
'परंतु आपका जाना ही उचित है।' आनंद बात पूरी करते हुए बोला। दोनों की एक हल्की-सी हँसी इस सन्नाटे में गूँज गई। दो विवश हृदयों का विवश-संसार, कितना उल्लास है इसमें। मन में इन्हीं विचारों को लिए संध्या भीतर गई।
आनंद शीघ्रता से पाँव बढाता अपनी मोटर की ओर लपका। आज वह अति प्रसन्न था। गाड़ी में बैठते ही उसने सीट पर रखे फूल को उठाया जो कुछ समय पूर्व संध्या के बालों में था। उसने फूल को सूंघते हुए गाड़ी स्टार्ट कर दी। कुछ समय पश्चात् उसे मोटर में लगे दर्पण में किसी लड़की की छाया दृष्टिगोचर हुई। काल्पनिक संध्या की इस प्रकार गाड़ी में छाया देखकर वह मुस्करा उठा। तुरंत ही चौंककर उसने गाड़ी को ब्रेक लगा दी और विस्मयपूर्वक दर्पण की छाया को देखने लगा। आनंद ने झट से भीतर उजाला किया और मुड़कर पिछली सीट पर देखने लगा। बेला उसे देख मुस्करा रही थी। आनंद आश्चर्यचकित उसे देख ही रहा था कि वह बोल उठी-
'चकित क्यों हैं - मैं हूँ बेला?'
'परंतु यहाँ कैसे-कब?'
'सोचा थियेटर तो संग में ले नहीं गए, मोटर में तो ले ही चलेंगे।'
'बावली तो नहीं हो गई - इतनी रात गए कोई देख ले तो।'
'तो क्या? बेला अथवा संध्या में कोई अंतर नहीं।'
'ओह! अब समझा।'
'क्या?'
'दीदी तुम्हें थियेटर नहीं ले गईं ना, इसी से तुम रूठी हुई हो।'
'नहीं तों - यह अनुमान आपने कैसे लगाया।'
'मेरा आशय है उसकी इच्छा! तुम्हारी ही दीदी है इसमें मेरा क्या दोष।' आनंद के इस उत्तर पर बेला हँसने लगी और बोली-
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