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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

'ओह, मैं तो भूल ही गया - हमें विलम्ब हो रहा है।'

'कहाँ के लिए?'

'मैं और संध्या थियेटर जा रहे हैं।'

'यदि बुरा न समझें तो मैं भी चलूँ।'

'तुम! हाँ हाँ, किंतु पापा से पूछ लो।'

'आप घबराइए नहीं - मैं कोई उनकी सौतेली बेटी हूँ?' बेला उछलती हुई बाहर जाने को बढ़ी, परंतु एकाएक ही रुक गई। आनंद पाँव उठाते हुए उसके निकट आ गया। वह चंचल-भाव में बोली- मैं आपके संग चलूँ - यह आप मन से कह रहे हैं क्या?'

'हाँ तो - भला तुम्हें संग ले जाने को किसका मन न चाहेगा।'

बेला अपनी प्रशंसा सुनकर फूली न समाई और सीढ़ियाँ चढ़ती हुई अपने कमरे की ओर भागी। वहाँ संध्या पहले से तैयारी में लगी थी। बेला ने भी झट अलमारी खोली और कोई अच्छी-सी साड़ी टटोलने लगी। संध्या ने आश्चर्य से पूछा-

'बेला कहाँ की तैयारी है?'

'थियेटर, आनंद संग ले जा रहे हैं। क्यों दीदी, चलूँ मैं भी?'

'नहीं।'

'क्यों?'

'पापा तुम्हें जाने न देंगे।'

'तो क्या तुम चोरी से जा रही हो?' 'कुछ ऐसा ही समझ लो।'

'वाह! तुम्हारे संग कौन जा रहा है - मैं तो आनंद..... ' बेला कहते-कहते रुक गई। संध्या जा चुकी थी। बेला ने शीघ्र नई साड़ी पहनी और बालों में रिबन लगा नीचे उतर आई।

आनंद और संध्या रायसाहब के पास खड़े कदाचित जाने की अनुमति ले रहे थे। बेला भी उनके पास जा खड़ी हुई और प्रार्थना भरे स्वर में बोली-'मैं भी जाऊँ पापा।'

'नहीं!' रायसाहब ने तनिक कठोर स्वर में कहा। बेला ने आशापूर्ण दृष्टि में आनंद की ओर देखा जो उससे आँखें न मिला सका और रायसाहब से बोला-

'जाने दीजिए - टिकट तो मिल ही जाएगा।'

'नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। आप जाइए, इसे अध्ययन करना है, इन बातों के लिए बड़ा समय पड़ा है।'

रायसाहब का यह दृढ़ निश्चय देखकर दोनों चुपचाप चले गए। बेला जल-भुनकर रह गई।

अपने कमरे में लौटकर उसने क्रोध में कपड़े बदले और पुस्तक ले बिस्तर पर बैठ गई। खाने के लिए नौकर बुलाने आया तो उसे डांटकर भगा दिया। बेटी को मनाने जब मम्मी आईं तो किवाड़ बंद कर दिया और जब पापा का स्वर सुनाई दिया तो बत्ती बुझाकर लेट गई। पापा ने एक-दो बार पुकारा किंतु वह मौन रही। जब सब हारकर चले गए तो अंधेरे में लेटी बेला कल्पना में आनंद के चित्र बनाने लगी। उन सुनहरे सपनों में खोई बेला की न जाने कब आँख लग गई।

बाहर किसी धमाके से उसकी नींद खुल गई। अंधेरे में घूमती हुई उसकी दृष्टि जब एकाएक सामने दूसरे पलंग पर पड़ी तो उसने उसे खाली पाया-'तो क्या संध्या अभी तक नहीं लौटी? किंतु वह भीतर आती ही कैसे? किवाड़ तो अदंर से बंद था।' बेला ने उसी क्षण हाथ बढ़ाया और बत्ती जला दी। कमरे में और कोई न था।

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