ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
-यह आप इतने चिंतित क्यों हैं - मैंने कोई उलाहना तो नहीं दिया।'
'तो फिर।'
'अपना अधिकार - बड़ों के पश्चात् छोटे।'
'कैसे? मैं समझा नहीं।'
'अब मेरी बारी है घूमने की।'
'बेला! देखो बालपन मत करो-आधी रात को घूमना! जाओ घर-वचन देता हूँ कल अवश्य ले चलूँगा।'
'तो वचन देते हैं आप?'
'हाँ भई-अब देर न करो, गाड़ी से उतरो।'
'तो. आपको मेरी बात भी माननी होगी।'
'क्या?'
बेला मुस्कराई और अगली सीट पर आ गई। अभी आनंद असमंजस में ही थी कि उसने अपनी बांहें उसके गले में डाल दीं।
'एक बार मुझे भी बाहुपश में ऐसे ही बांध लो जैसे दीदी की।'
'बेला! सुध खो बैठी हो क्या?'
'नहीं! बल्कि आपको सुध में लाना चाहती हूँ।'
आनंद उलझन में पड़ गया कि क्या करे। फिर बोला-
'यदि मैं तुम्हारी यह प्रार्थना न मानूँ तो'
'तो मुझे रैन गाड़ी में बितानी होगी।'
'तो मुझे जाकर रायसाहब को सूचित करना पड़ेगा।'
'आप अवश्य जा सकते हैं।' बेला ने उद्दण्डता से उत्तर दिया।
आनंद उसकी यह हठ और चंचलता देखकर असमंजस में पड़ गया। अंत में हारकर उसे यह विलक्षण निश्चय स्वीकार करना ही पड़ा। कुछ क्षणों के लिए वे एक-दूसरे में लीन हो गए। तीव्रता से चलता श्वास और धधकता हुआ शरीर-जब वे अलग हुए तो आनंद ने यूँ अनुभव किया कि मानों कोई एक झटके से उसे स्वर्ग से नरक में फेंक गया हो। जब वह कुछ संभला तो बेला मोटर के नीचे खड़ी उन्मादपूर्ण नयनों से उसकी ओर देख रही थी।
'एक बात पूछूँ?' बेला ने चंचलता से पूछा।
'हूँ।'
'वह थियेटर अच्छा था अथवा यह नाटक।'
'वह थियेटर।' आनंद ने धीरे से कहा और मोटर स्टार्ट कर दी। चलते-चलते उसने बेला की ओर देखा। वह क्रोध में लाल हो रही थी। वह कुछ दूर तक दर्पण में उसे देखता रहा।
बेला अपने छोटे से नाटक की सराहना न पाकर चुपचाप उदास खड़ी थी। आनंद ने सोचा जीवन के किसी मोड़ पर कभी-कभार ऐसी घटनाओं का सामना करना ही पड़ता है - उसकी हँसी छूट गई।
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