ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
किवाड़ खटखटाने और प्रतीक्षा करने पर भी जब वह बाहर न आई तो आनन्द अपना मुँह किवाड़ के पास ले जाकर बोला-
'अच्छा संध्या, इसे मैं यहाँ से ले जा रहा हूँ - बहुत दूर - मैं तुम्हारे उपकारों को भुला नहीं सकता। मेरा रोम-रोम तुम्हारा आभारी है। इस जन्म में तो शायद इनका बदला न चुका सकूँ - हाँ और जन्म में अवश्य तुम्हारी सेवा का गौरव प्राप्त करूँगा।'
आनन्द ने थोड़ी देर उत्तर की प्रतीक्षा की परंतु न तो संध्या की सिसकियाँ थमी और न उसने किवाड़ खोले।
संध्या आनन्द की बात सुनती एही और उसने बेला के कमरे में एक शोर-सा सुना जैसे दोनों में तू-तू मैं-मैं हो रही हो। फिर बाहर जाने की आहट हुई और कमरे में सन्नाटा छा गया। वह धीरे-धीरे दीवार का सहारा लेकर उठी और बाहर निकल आई। बेला के कमरे की सब चीजें बिखरी पड़ी थीं। संध्या की अलमारी भी खाली थी। आनन्द अपना सामान भी साथ ले गया था। शीघ्रता में उसके गले का मफलर वहीं खूंटी पर टंगा रह गया। संध्या उसे हाथ में लेकर उंगलियों में मसलने लगी।
ऐसी दशा में जाने वह कहाँ भटक रहा होगा। कहीं वह उसे अपने फ्लैट में या रायसाहब के यहाँ ले गई तो आनन्द की आँखें सदा के लिए उसके सामने झुक जाएंगी - उसे उभारने का उसका प्रयत्न विफल गया - इस विचार से वह बेचैन हो उठी।
दिन ढल गया। कारखाने की मशीनों की आवाज शाम के सन्नाटे में गुम हो चुकी थी। आज दिन की रिपोर्ट देने के लिए सुंदर और नन्हें पाशा आनन्द के स्थान पर संध्या के सम्मुख आए। वह सुनती रही और उसने प्रश्न न किया। आज उसका मन किसी काम में न लग रहा था। माँ ने उसे बहुतेरा समझाया किंतु वह चुप रही। उसका यह मौन और भी चिंताजनक था।
हर दिन की भांति सवेरे घड़ी का अलार्म बजा और संध्या ने तुरंत उसे बंद कर दिया। वह रात भर सोई नहीं और चिंता में करवटें बदलती रही। आज उसे दफ्तर और कारखाने का काम करना था।
वह अकेली थी। उसका सहारा जा चुका था। व्यर्थ बैठे रहने से क्या होगा - उसने साहस देख मन में एक दृढ़ता अनुभव की। वह उठी और कारखाने की ओर चल दी।
उसके कारखाने में प्रवेश करते ही अपने कार्यों में व्यस्त मजदूर उसके स्वागत के लिए खड़े हुए। वह ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती, मशीनों की आवाज उसके कानों को भली लगती।
आज कितने समय पश्चात् उसने दफ्तर के दरवाजे को छुआ। जिसे कल तक आनन्द की उंगलियों ने स्पर्श किया था, बाहर बैठे चपरासी ने झुककर नमस्ते किया। संध्या ने मुस्कराकर उसे उत्तर देते हुए भीतर प्रवेश किया। भीतर जाते ही वह ठिठककर रुक गई। सामने मेज पर आनन्द बैठा काम कर रहा था। अभी वह विस्मय से उसे देख ही रही थी कि वह अपनी कुर्सी से उठते हुए बोला-'आइए।'
'किंतु आप' - कुर्सी पर बैठते हुए वह बोली।
'घर छोड़ा है काम नहीं - घरेलू बातों से सांसारिक धंधों का क्या संबंध-’ 'ओह - मैं समझी थी शायद आप काम पर न आएंगे।'
'इसीलिए मेरा काम करने के लिए आपको आना पड़ा।'
'यह हर बात में 'आप' क्यों?'
'अपने मालिक को यों ही संबोधित करते हैं।'
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