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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

'पहले से अच्छा।'

'लो - दीदी तुम्हारे लिए दूध ले आई हैं - इसे पी लो।'

'कौन दीदी' - गर्दन उठाकर बेला ने एक कड़ी दृष्टि से संध्या को देखते हुए कहा जो हाथों में दूध का प्याला लिए पास आ खड़ी थी। 'मैं इनके हाथों से न पीऊँगी। इसमें भी इसने जहर मिला दिया होगा।'

'मूर्ख न बनो - भूल तो मानव से हो ही सकती है।'

'भूल, यह भूल थी - किसी के जीवन का प्रश्न था - एक का नहीं दो का जिन्हें वह एक साथ समाप्त करना चाहती थी। वह जानती थी कि नए जीवन के आने पर हम दोनों एक हो जाएंगे और स्वयं उसकी कामनाएँ पूरी न हो सकेंगी।'

'बेला होश में आओ - तुम जीवन-भर इसके उपकार नहीं उतार सकोगी - तुम किसी भ्रम में हो।'

'इसलिए कि उसने आप पर कोई जादू-टोना कर रखा है - इसलिए कि अपने घर में स्थान देकर यह मुझसे कसाई-सा बर्ताव करना चाहती है - मेरे जीवन की शत्रु मेरी बहन नहीं हो सकती - मैं पल भर भी इस घर में न रहूँगी।' संध्या सामने खड़ी यह सब सुनती रही। ये झूठे आरोप सुनकर उसके शरीर में आग लग रही थी। क्रोध में उसके हाथ-पैर कांप रहे थे। उसके मुख का बदलता रंग देखकर आनन्द भी घबरा गया। संध्या के मुख पर ऐसे भाव उसने आज से पहले कभी न देखे थे। वह अभी तक चुप थी।

जब उससे अधिक सहन न हो सका तो संध्या ने दूध का प्याला फर्श पर पलट दिया। जोर का धमाका हुआ और दोनों चौंककर रह गए। आवाज सुनकर खाना बीबी दौड़ी-दौड़ी आई पर सबको भयभीत देखकर किवाड़ के पास ही खड़ी रह गई।

चन्द क्षण निस्तब्धता रही। धीरे-धीरे संध्या के कांपते हुए होंठ हिले और वह बोली-

'इस दूध में जहर है - पर इसका उस नागिन पर क्या प्रभाव जिसके रोएं-रोएं में जहर के अतिरिक्त कुछ नहीं - तुमने इस घर को भी तमाशे का स्टेज समझकर यहाँ एक्टिंग आरंभ कर दी। यदि मुझे तुम्हारी मौत ही चाहिए थी तो इतनी आसान मौत कभी न देती बल्कि जीवन-भर वह तड़प देती कि तुम ऐडियाँ रगड़-रगड़कर कराहती। भूल मेरी ही थी कि मैं सांप को दूध पिलाती रही, इस आशा में कि वह डंसना छोड़ देगा।'

संध्या यह कहते-कहते रुक गई और फूट-फूटकर रोते हुए दूसरे कमरे में भाग आई। आनन्द ने एक झटके के साथ बेला का सिर पलंग पर फेंका और तेजी से संध्या की ओर बढ़ा। वह पलंग पर औंधी हुई रो रही थी। आनन्द ने उसे उठाना चाहा तो संध्या ने क्रोध में उसका हाथ झटक दिया और चिल्लाकर कहने लगी-

'ले जाइए - अपनी नागिन को और बजाइए बीन - यहाँ क्या लेने आए हैं - मुझ अभागिन का चैन लूटने क्यों आए हैं - जाइए - यहाँ से चले जाइए - किसी बड़े अस्पताल में जहाँ अमृत मिले - मैं जहर देती हूँ न - मुझसे अब और सहन न होगा।'

'संध्या धैर्य से काम लो - एक मूर्ख की बातों में आ गईं तुम - वह तो पगली है - नीच है - तुम्हारे उपकारों को बिसरा दिया है उसने-’

'मुझे इससे क्या संबंध - जैसी भी है - ले जाइए' - वह क्रोध में कांपते स्वर में बोली और पास के कमरे में जाकर उसने भीतर से किवाड़ बंद कर लिए। उसकी सिसकियों की आवाज सुनाई दे रही थी।

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