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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास


इक्कीस

आकाश और अंधकार वियोग के आँसू बहा रहे थे। पौ फटने में चंद ही क्षण शेष थे। ठंडी हवा खिड़की के पर्दों से खेलती हुई कमरे में प्रवेश कर रही थी। बेला को जागे हुए समय हो गया था। दिन रात लेटे रहना, भूख का अभाव तो नींद क्या करे - वह कब से उजाले और अंधेरे का खेल देख रही थी - उजाले के आंगन की प्रतीक्षा करते-करते उसकी आँखें पथरा गई थीं और उजाला था कि धीरे-धीरे अठखेलियाँ लेता हुआ आ रहा था।

उसने दृष्टि घुमाकर बराबर वाले पलंग पर देखा। आनन्द अभी तक मीठी निद्रा में सो रहा था। साथ वाले कमरे में संध्या के गुनगुनाने की आवाज आ रही थी। आज न जाने दीदी की आवाज उसे इतनी मीठी क्यों लग रही थी - जैसे उसके कानों में कोई शहद की बूँदें टपका रहा हो।

गुनगुनाहट समीप आई और बेला ने जान-बूझकर आँखें बंद कर लीं। वह जानती थी कि रोज की भांति अब वह उसके कमरे में आएगी - फिर इतने में संध्या ने गुनगुनाते हुए प्रवेश किया - प्रभात की सुगंधित मस्त पवन के समान। बेला चोर-दृष्टि से उसे देखने लगी। आते ही उसने कमरे की खिड़की खोल दी जिससे उजाला हो गया। वह आनन्द के तकिए के पास आकर खड़ी हो गई। बेला के मन में एक चुभन-सी अनुभव हुई। दीदी की यही बात उसे भाती न थी। वह उसे आनन्द की ओर झुके देखकर खौलने-सी लगती - डाह जागृत हो उठती।

आनन्द के सिर पर झुककर उसके बालों को खुजलाते हुए संध्या ने कहा-'उठिए, सवेरा कब का हो चुका।'

'ऊँ- ओह' - आँखें मलते हुए आनन्द ने जम्हाई ली और अंगड़ाई लेते हुए बोला-'तुम घर में हो तो घड़ी के अलार्म की आवश्यकता नहीं। दोनों ने सामने रखी घड़ी को देखा जो ठीक छह बजा रही थी - हर दिन सवेरे छह बजे संध्या आनन्द को बिस्तर छोड़ने का आदेश सुनाने आती और वह झट उठ बैठता था। आनन्द ने मुँह फेरकर बेला की ओर देखा। उसने झट से आँखें बंद कर लीं मानों गहरी नींद में सो रही हो।

'तुम्हारी लाडली अभी तक सो रही है क्या?' आनन्द ने हँसते हुए संध्या से पूछा।

'जी, बेचारी के यही दिन तो सोने के हैं - नन्हें राजा आ गए तो रात-भर की नींद हराम हो जाएगी। लाडली को कभी च्याऊँ-कभी म्याऊँ - कभी दूध तो कभी आधी रात को गोद में उठाकर चहलकदमी करवाएगा।'

संध्या की बात सुनकर आनन्द खिलखिलाकर हँस पड़ा और उसे हँसते देखकर संध्या भी हँस दी। दोनों की हँसी बेला को अच्छी न लगी और उसने नाक सिकोड़कर पहलू बदल लिया।

आनन्द ने उसे पहलू बदलते देखा तो झट से बोला-'कट गई रैन अभी, पहलू बदल बदल' बेला ने फिर करवट ली।

'तो मेम साहिबा कबूतर के समान आँखें बंद करके हमारी बातें सुन रही थीं', आनन्द ने उसकी ओर देखकर छेड़ते हुए कहा।

'जी कबूतरी के समान - आपके समान बगुला भगत तो नहीं', बेला आँखें मलते हुए बोली।

'सवेरे-सवेरे की नोंक-झोंक' - संध्या आनन्द पर बिगड़ते हुए बोली, 'जाइए - तैयार हो जाइए।'

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