ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
वह उसी उलझन में पड़ी संध्या से पूछने ही वाली थी कि हुमायूं ने प्रवेश किया और आनन्द के कंधे पर थपथपाते हुए बधाई दी। संध्या और आनन्द दोनों मुस्करा दिए। बेला विचित्र विस्मय में थी।
जब हुमायूं को बेला ने अपने पास अकेला पाया तो धीरे से पूछने लगी-'आपने कैसे जाना कि मैं यहाँ हूँ।'
'खुशी की इठलाती हवा जो कह आई थी।'
'क्या?'
'कि तुमने मंजिल फतह कर ली।'
'नहीं! यह तो मेरी हार की जय-जयकार हो रही है - मेरी गाड़ी की घटना ही इन लोगों की सहानुभूति का कारण बनी है। वरना-’
'वरना क्या?'
'मेरी आशाओं की अर्थी-’
'लेकिन कभी-कभी तूफानों में पड़कर टेढ़े रास्ते भी सीधे हो जाते हैं।' 'समझ में नहीं आता - आखिर यह क्या तमाशा है - सब हँस रहे हैं - मेरी बेबसी पर मुस्कराकर आपस में खुसर-फुसर कर रहे हैं - कोई बधाई देता है, कोई मुँह मीठा कर रहा है - हर किसी की दृष्टि मुझी पर लगी हुई है।'
'तो तुमसे किसी ने कुछ नहीं कहा?' हुमायूं ने भोलेपन से प्रश्न किया। 'नहीं तो-’
'आनन्द' - ऊँची आवाज से हुमायूं ने पुकारा। आनन्द भागता हुआ अंदर आ पहुँचा।
'क्या है?'
'तुम भी अजीब आदमी हो।'
'क्यों?'
'इस बेचारी से अभी कुछ कहा ही नहीं।'
'क्या?'
'मेरा सिर' - यह कहता हुआ हुमायूं आनन्द को छोड़कर बाहर चला गया कि स्वयं उससे निबट ले।
आनन्द ने एक दृष्टि जाते हुए हुमायूं पर डाली और फिर घूमकर बेला को देखा। दोनों की आँखें एक-दूसरे से मिलीं और दिलों में एक कंपकंपी-सी दौड़ गई। आनन्द धीरे से उसके पास आ ठहरा और नम्रता से पूछने लगा-'तो सच
तुम्हें इस बात का ज्ञान नहीं?'
'किस बात का?'
'तुम यहाँ धन्यवाद करने आई थीं न उस रंगीन रात का-’ 'हाँ तो-’
'भगवान ने तुम्हारी सुन ली।'
'क्या?'
'शीघ्र हमारे घर एक अतिथि आने वाला है।'
बेला यह सुनकर लजा गई और तकिए में मुँह छिपाने का यत्न करने लगी। हुमायूं और संध्या भी वहाँ आ पहुँचे और तीनों बैठकर चाय पीने लगे। बेला उसके मुख पर हर्ष की रेखाओं को पढ़कर चुपचाप बिस्तर पर लेटे मन-ही-मन मुस्करा रही थी।
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