ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
हुमायूं की जुबान से बांझ शब्द सुनकर बेला जल गई - उसके शरीर में अंगारे दहकने लगे - तो क्या अब आनन्द उसको ऐसा समझने लगा। मैं बांझ हूँ - उसे संतान की आवश्यकता है - संतान के लिए वह व्याह रचा रहा है - वह इस आड़ में अपनी वर्षों से दबी प्रेम की चिंगारियों को हवा देना चाहता है - न जाने ऐसे कितने ही विचार उसके मस्तिष्क में चक्कर काटने लगे। उसके सामने आनन्द और संध्या मुस्कराते हुए आते और देखकर खिलखिलाकर हँसने लगते - वह घृणा से दांत पीसने लगी।
हुमायूं उसे अपनी उलझनों में खोया देखकर चुपचाप एक ओर पुस्तक लेकर बैठ गया। बेला हाथों में बूढ़े की दाढ़ी का मेकअप तार-तार करने लगी - उसे कोई सुध न थी - उसका मस्तिष्क नीलकंठ में घूम रहा था जहाँ आनन्द और संध्या बैठे प्रेमालाप में मग्न थे।
'मैं बांझ हूँ?' बार-बार यह प्रश्न उसके मन में आता - उसके वश में होता तो अभी उसे खींचकर अपने यहाँ ले आती और उससे पूछती कि बांझ कौन है - चिंताएं जब सीमाएँ उलांघ जाती हैं तो मस्तिष्क पर एक पागलपन-सा छा जाता है, एक विकार सा - यही स्थिति इस समय बेला की थी जिसे लिए हुए वह कहीं जाने को तैयार होने लगी।
हुमायूं ने पूछा-'कहाँ?' परंतु बेला ने कोई उत्तर न दिया और चली गई। हुमायूं कुछ सोचकर टेलीफोन पर संध्या का नंबर मिलाने लगा।
बेला गाड़ी को तेज चलाती नीलकंठ की ओर बढ़ने लगी - आज उसका पागलपन उसी सीमा पर पहुँच चुका था जहाँ किसी को सुध नहीं रहती। बेला ने गाड़ी की गति तेज कर दी। सड़क पर वर्षा होने से फिसलने का संदेह होते हुए भी वह हवा की-सी तेजी से बढ़ी जा रही थी - वह आज आनन्द से जीवन का निर्णय करके छोड़ेगी - वह कभी यह सहन न कर सकती थी कि उसकी आँखों के सामने उसी की छाती पर मूंग दलकर आनन्द संध्या से विवाह कर ले। वह बांझ है - ये झूठे शब्द उसे फूंक रहे थे - वह तड़प रही थी - जल रही थी। संध्या की बस्ती के फाटक में से होते हुए वह सीधे गाड़ी को बरामदे के पास ले आई। संध्या और उसकी माँ बरामदे में एक ओर खड़ी बातें कर रही थीं। एकदम ब्रेक लगने की आवाज सुनकर चौंक पड़ी। संध्या बेला को बरामदे की सीढ़ियों पर पाँव रखते देखकर उसके स्वागत के लिए बढ़ी-'आओ बेला' - उसने मुस्कराते हुए कहा।
'कहाँ है वह?' - क्रोध में नथुने फैलाते हुए बेला ने पूछा।
'गोल कमरे में-परंतु-’
पूरी बात सुने बिना ही बेला जोर-जोर से पाँव रखती भीतर चली गई। संध्या उसके क्रोध को भांप गई। हुमायूं ने टेलीफोन पर उसे सब बता दी थी, पर उसने आनन्द से इसका वर्णन न किया था। वह व्यर्थ उसे चिंतित न करना चाहती थी।
कहीं यह क्रोध कोई और रूप धारण न कर ले, यह सोचकर वह बेला के पीछे-पीछे गोल कमरे में चली आई। दोनों को चुपचाप अपनी ओर आते देख आनन्द सोफे से उठ बैठा।
'आओ मिस सपेरन - आज रास्ता भूलकर इधर कैसे आ गईं?' - आनन्द ने व्यंग्य भरे स्वर में पूछा।
'सपेरे की खोज में' - होंठों को दांतों तले दबाते बेला ने उत्तर दिया।
'खूब, आओ बैठो - देखो संध्या इनके लिए कुछ लाओ - सांपों में रहकर यह स्वयं आज कुछ अधिक विष लिए हुए हैं।'
बेला ने घूमकर संध्या को देखा और जो पीछे खड़ी हँस रही थी। उसे देखकर बेला और जल-भुन गई। संध्या ने भी उसके मन में उठता हुआ धुआं देख लिया और आनन्द की ओर देखते हुए झुककर बोली-'अभी लाई-' 'दीदी, रहने दो - बहुत हो चुका - यदि हो सके तो बाहर चली जाओ।' 'वह क्यों - क्या कोई प्राईबेट-'
'हाँ, हाँ बहुत ही प्राईवेट-’
संध्या चुपके से बाहर चली गई। जाते समय उसने संकेत से आनन्द को डटे रहने के लिए कहा।
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