ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
बीस
टेलीफोन नीचे रखते हुए संध्या सोफे पर बैठ गई और आनन्द के चिंतित मुख को देखने लगी। आनन्द ने उसे बीनापुर की बात सुनाई थी। वह बहुत परेशान था। उसे आनन्द का बर्ताव अच्छा न लगा था और वह उसे भला-बुरा कह रही थी। टेलीफोन सुनते ही वह खिल उठी-
मौन को तोड़ते हुए आनन्द ने कहा-
'कौन था?'
'हुमायूं भाई।'
'क्या कहता था?'
'बेला लौट आई है।
संध्या की बात सुनकर आनन्द के मुख पर प्रसन्नता की एक हल्की-सी रेखा प्रकट हुई और सांत्वना की लंबी साँस लेते हुए वह कहने लगा-'क्यों, मेरा अनुमान कैसा रहा। मैं न कहता था कि वह अपने प्राणों से कोई भयानक खेल नहीं खेल सकती।'
'ठीक है, किंतु कभी मानसिक स्थिति बिगड़ने से मानव भटक भी जाता है - मैं तो डर रही थी-’
'कहीं क्रोध में किसी चोटी से कूदकर प्राण न दे दे', आनन्द ने बात पूरी करते हुए कहा।
'हाँ - आप स्त्री के मन को क्या समझें।'
'संभव है मैं न समझ पाऊँ किंतु बेला के मन को खूब जानता हूँ।'
उसी समय बाहर एक गाड़ी रुकी और हुमायूं रुमाल से पसीना पोंछते भीतर आया। दोनों लपककर उसकी ओर उत्सुकतापूर्वक नई खबर सुनने के लिए आगे बड़े।
वह गंभीर और उदास दिखाई देता था। दोनों उसके दाएं-बाएं आ बैठे और बेचैनी से उसे देखने लगे। हुमायूं वैसे ही मूर्ति बना बैठा रहा।
'कुशल तो है?' - एक स्वर में दोनों ने पूछा।
हुमायूं ने कड़ी दृष्टि से दोनों को बारी-बारी देखा और फिर जोर से हँसने लगा। दोनों आश्चर्य से उसे देखे जा रहे थे। हुमायूं ने एक हाथ आनन्द के कंधे पर रखा और दूसरा संध्या के कंधे पर फिर हँसने लगा।
'आखिर क्या है?' आनन्द ने उसकी हँसी काटते हुए पूछा।
वह एकाएक चुप हो गया जैसे किसी ने चढ़ी हुई पतंग की डोर काट डाली हो।
'हाँ भाई साहब - क्या बात है?' संध्या ने प्रश्न को दोहराया।
'जीत आनन्द की हुई - जिन्दगी में आज पहली बार उसने अक्ल से काम लिया।'
'कैसी जीत?'
'आज तुमने दोस्त! सही मायनों में बेला का दिल तोड़ा है जिसकी तड़प से वह सख्त बेचैन है - आज उसे किसी चीज का होश नहीं - वह बेला जो हमेशा गर्व से गर्दन उठाकर कहती थी कि उसने झुकना नहीं सीखा, आज औंधी पड़ी अपनी हार पर आँसू बहा रही है।'
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