ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
न जाने दोनों कब तक एक-दूसरे के दिल की धड़कनें अनुभव करते रहे। पानी की बौछार और तेज हवा शोर मचाते रहे - छत पर पानी पत्थर से गिरने की ध्वनि करता रहा - वे इस दुनिया से दूर किसी और ही नशे में खोए हुए थे - जिससे उनके मन की भावनाएँ गीत बनकर संगीत पैदा कर रही थीं।
रात के अंतिम पहर में बारिश थम गई और सवेरे तक आकाश बीनापुर की घाटी में सोना-सा बिखेर गया।
बेला अभी तक लिहाफ ओढ़े सो रही थी। अचानक उसने अनुभव किया कि आनन्द वहाँ नहीं था। उसने आँखें बंद किए ही हाथ से बिस्तर टटोला। वह वास्तव में वहाँ न था - शायद स्नान आदि के लिए चला गया हो। वह आँखें बंद किए पड़ी रही। उसमें इतना भी बल न था कि करवट लेकर उसे देखे। उसका अंग-अंग थकान से शिथिल था। उसका शरीर चूर-चूर हो रहा था।
उसने नींद में खो जाने का प्रयत्न किया और वह सो गई और जाने कब तक यों ही बेसुध सोई रही।
जब उसकी आँखें खुलीं तो धूप काफी निकल आई थी और कमरे की दीवारों पर सुनहरी लेप-सा हो रहा था। वह अंगड़ाई लेते हुए बिस्तर में ही बैठ गई और आँखें मलते चारों ओर देखने लगी। उसका मन एक अज्ञात भय से घबराने लगा। आनन्द वहाँ न था।
उसने अपने शरीर पर आनन्द के ढीले-ढीले कपड़ों को ठीक किया और उठकर गुसलखाने की ओर भागी। वहाँ से वह सीधी कोठी के खाली कमरों को पार करती हुई बाहर निकल गई। आनन्द कहीं भी न था। सामने माली बैठा पौधों को ठीक कर रहा था। बेला को देखते ही वह खड़ा हो गया।
'साहब कहाँ हैं?' बेला ने झट पूछा।
'चले गए।'
'कहां?' बेला के स्वर में बेचैनी और कंपन थी।
'बम्बई-सुबह की गाड़ी से।'
बेला सुनकर अभी संभली न थी कि माली ने बढ़कर एक लिफाफा उसके हाथ में दे दिया-'आपको देने को कह गए हैं।'
बेला ने लिफाफे को कांपती उंगलियों से पकड़ा और फाड़कर सामने चबूतरे पर बैठकर पढ़ने लगी। लिखा था-
'बेला,
तुम सो रही थीं, जवानी की गहरी और उन्मादी नींद में। जगाना उचित न समझा। मानव की निर्बलता कभी-कभी उसे पागल बना देती है और आज मैं इसी पागलपन में अपने नियम से भटककर तुम्हारे झूठे हाव-भाव का शिकार हो गया था। किंतु सुध आते ही फिर अपने को अकेला पाया और तुम्हारी निद्रा का लाभ उठाकर चल दिया - अपनी मंजिल की ओर जो तुमसे भिन्न है। आशा है तुम मुझे चोरी के लिए क्षमा करोगी और कभी मेरा पीछा न करोगी।
इसलिए कि तुम जानती हो हमारे झूठे और बनावटी प्रेम में लहू के कतरे छिपे हैं।
-- आनन्द'
बेला ने ज्योंही यह पत्र पढ़ा उसके मन को धक्का-सा लगा। जैसे अचानक मालगाड़ी के अकेले डिब्बे को इंजन ने धक्का दिया हो। पत्र उसकी उंगलियों में मसलकर रह गया और वह क्रोध से दाँत पीसते हुए कमरे में आई।
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