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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

जैसे ही दोनों की आँखें चार हुईं, आनन्द कांप गया। आश्चर्य से उसके शरीर में एक ठंडी रौ-सी दौड़ गई। वह बेला थी जो आज अपने जीवन की शिखा पर आनन्द को देख रही थी।

आनन्द के कांपते होंठों से बस इतना निकला-'तुम।'

और उसने अपना मुँह फेर लिया। क्षण-भर खड़े रहकर वह लम्बे-लम्बे डग भरता बाहर निकल गया। उसे अनुभव हुआ जैसे प्रसन्नता की पींग बढ़ाते हुए उसकी रस्सी टूट गई हो और वह धड़ाम से नीचे गिरा हो। बेला की तीखी दृष्टि विष बनकर उसके हृदय में उतर गई। वह विस्मित था कि इस उजाड़ में वह अकेली क्या कर रही है। उसे अब उसके निश्चयों से डर-सा लगने लगा था। सामने झील के तल पर सरसराती आवाज में उसने अपने अपाहिज भाई की चीखें सुनाई दीं। उसे विश्वास-सा होने लगा कि बेला ही उसके भाई की मौत की जिम्मेदार है।

एकाएक इस असमंजस में आनन्द के मन में बदला लेने का विचार प्रबल हो उठा - बीनापुर का कण-कण उसे बदले पर उभारने लगा।

यह सुनसान स्थान - बस्ती से दूर - बेला का अकेला होना - कितना सुंदर अवसर है दहकती हुई ज्वाला को ठंडा करने का, क्यों न आज इस नागिन का सर कुचल दूँ - संध्या ने भी तो उस शाम उसे यही आदर्श दिया था।

'विष को विष काटता है - विष में थोड़ा-सा अमृत मिलाइए - बेला को अपने साथ ले जाइए - इस जगमगाती दुनिया से बहुत दूर - बियावान पहाड़ों की चोटियों पर - जहाँ से झरने का पानी घाटियों में झरझर की गूंज भर देता है - फिर चुपके से उसी शोर में बेला को सदा के लिए गाड़ दीजिए।'

'हाँ, हाँ यह ठीक है - किंतु इतना कड़ा मन वह कहाँ से लाए - उसकी बाहों में वह शक्ति कैसे आएगी जो उसे धकेल सके - और फिर जब गिरते समय बेला की चीख उस घाटी में गूंजेगी तो क्या वह सहन कर सकेगा - क्यों नहीं? बेला भी तो एक स्त्री होते हुए अपने में साहस ले आई थी - उसके अपाहिज भाई को झील में डुबोते समय उसका मन तो नहीं डोला - उसकी चीख भी तो इस घाटी में गूंजी होगी - उसके कानों के पर्दों से टकराई होगी - उसने भी तो सुनने की शक्ति पैदा की थी - फिर वह पुरुष होते डगमगा रहा है - नहीं-नहीं, वह अवश्य बदला लेगा - इस नागिन का सिर कुचलेगा।

एकाएक उसके कंधे पर किसी ने हाथ रखा और वह चौंक गया। किसी की ध्वनि हवा के साथ सरसराई-'आनन्द?'

उसने मुड़कर देखा। वह बेला थी जिसकी आकृति सूर्यास्त के बादलों में से छनकर आती हुई किरणों की लालिमा में चमक रही थी।

दोनों चुप थे। परंतु दोनों के अंतःस्थल में हलचल थी। आज के दृश्य उस रंगीन शाम की याद दिला रहे थे जब बेला खंडाला की पहाड़ियों पर इसी तरह आनन्द के संग झूमती हुई जा रही थी - ऐसे ही बादल थे - झरनों की मधुर गूंज थी और वही प्रकृति की गोद - इसके पश्चात् आनन्द को अपना निर्णय बदलना पड़ा था।

पर आज का तूफान उन उमड़ती घटनाओं के साथ सीने में बिजली सी छिपाए था जिसमें राख कर देने की शक्ति है - ऐसी गरज थी जो घाटी में गूंजते झरनों की आवाज में एक भयभीत शोर भर दे - आज सुबह इस उमड़ती घटा को सदा के लिए दबा देना चाहता था।

दोनों कटी हुई पहाड़ी की चोटी पर जा ठहरे जिसके एक ओर पानी झरना बनाकर खड्डे में गिर रहा था। वह झुककर खड्डे में झांकने लगी। आनन्द भी उसके सामने आ ठहरा और उसके कंधे का सहारा लेकर नीचे खड्डे में गिरते पानी को देखने लगा।

उसकी उंगलियाँ मचल रही थी। वह उस क्षण की प्रतीक्षा में था जब बेला एक पाँव आगे रखे और वह उसे खड्डे में धकेल दे। पानी के इस शोर में नीचे जाती बेला की चीखों से घाटी गूंज उठेगी - एक तूफान उठेगा और फिर सदा के लिए शांति छा जाएगी।

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