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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास


उन्नीस

साँझ की ठंडी हवा अठखेलियाँ कर रही थी। आनन्द कारखाने के काम से निबटारा पाकर उस घाटी की ओर बढ़ता जा रहा था जिसका कण-कण उसका जाना-पहचाना था।

वह झील के किनारे पहुँचा जो कभी उसके मन की गहराइयों में अपना प्रतिबिम्ब डालती थी। वह नीला जल और वह उसके किनारे खड़ा छोटा-सा बंगला-चुपचाप और सुनसान-सा-उसके मन में एक चुभन-सी उठी। उसके पाँव उसी ओर उठते गए - न जाने अब यहाँ कौन रहता है।

जैसे ही उसने अपने पाँव सीमेंट के चबूतरे पर रखे उसका हृदय घबराहट से धड़कने लगा। उसने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई। वहाँ कोई भी न था - जान पड़ता था कि वह मकान एक समय से उजाड़ पड़ा है।

पौधों में आहट हुई और कोई उधर बढ़ा। वह यहाँ का पुराना माली था जो आनन्द को देखकर ठिठक गया। आश्चर्य में कुछ क्षण वह उसे वहीं खड़ा देखता रहा और दौड़कर आनन्द के पास आकर बोला- 'बाबूजी-आप'

'हाँ काका मैं - कहो आजकल कौन रहता है यहाँ?'

'यह तो उजड़ा पड़ा है बाबूजी! जब से आप गए हैं कोई इसे किराए पर लेता ही नहीं-’

'क्यों?'

'कहते हैं अशुभ स्थान है - न जाने क्या-क्या बकते हैं।'

'क्या कहते हैं हम भी तो सुनें।'

'छोटा मुँह बड़ी बात - कहते हैं बाबूजी का दिमाग खराब हो गया है - उनकी पत्नी भाग गई - हर रात वह उसे ढूंढने यहाँ चले आते हैं।'

आनन्द उसकी यह बात सुनकर हँसने लगा। जब वह चुप हुआ तो उसकी यह हँसी घाटी में गूंजने लगी।

'देखो काका' - बात को बदलते हुए आनन्द ने माली से कहा-’आज हम तुम्हारे बंगले को आबाद करेंगे - आज रात यहीं सोएंगे - वह बंशी बाबू हैं ना कारखाने के खजांची - उनके यहाँ मेरा सामान रखा है भागकर ले आओ - और हाँ उनके घर कहना - आज मैं खाना नहीं खाऊँगा - मन ठीक नहीं।'

माली की बात सोचकर वह डर गया और फिर अपनी मूर्खता पर हँसने लगा। उसे लगा जैसे सचमुच ही वह पागल है और इस सुनसान में बेला को ढूंढ रहा है जैसे वह यहीं-कहीं छिपी बैठी है। उसने पाँव की ठोकर से कमरे का बंद किवाड़ खोला।

कमरे में बिल्कुल अंधेरा था। आनन्द ने दीवार को टटोल कर बिजली का बटन दबा दिया।

उजाला होते ही उसकी हल्की-सी चीख निकल गई। किंतु वह शीघ्र ही साँस रोककर उसे दबा गया और आश्चर्य से सामने की खिड़की को देखने लगा। कोई स्त्री पीठ किए खिड़की से बाहर झांक रही थी। कमरे में और कोई न था। न वहाँ कोई सामान था। कमरे का अकेलापन बतला रहा था कि इसमें बड़े समय से कोई नहीं ठहरा।

आखिर इस उजाड़ में यह सुंदरी कौन? इस प्रश्न को मस्तिष्क में लिए उसने ध्यानपूर्वक उसे देखना आरंभ किया। आसमानी रंग की रेशमी साड़ी - मशीन से बने केश गर्दन पर झूमते हुए - अभी वह असमंजस में उसे देख रहा था कि वह अपने स्थान से सरकते हुए पहलू बदलने लगी।

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