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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

टेलीफोन की घंटी बजी और उसने रिसीवर उठाया। उसका अनुमान ठीक निकला। यह संध्या थी जो उसे नाटक का वह भाग सुना रही थी जो वह देख न सका था। ज्योंही उसने टेलीफोन रखा उसे मोटर के रुकने की आवाज आई - हो सकता है बेला हो। उसने खिड़की से झांककर देखना उचित न समझा और एक पुस्तक लेकर सोफे पर बैठ गया।

सीढ़ियों पर आहट हुई। द्वार खुला और बेला लड़खड़ाती हुई भीतर आई। हुमायूं झट उठा और उसे संभाल लिया। उसके चेहरे से उसकी दयनीय दशा प्रतीत हो रही थी।

'मैं न कहता था कि यह खेल तुम न देख सकोगी।'

'हुमायूं भैया' - बेला बालकों के समान उससे लिपट गई और अपनी व्याकुलता को आँसुओं में डुबोने लगी।

हुमायूं ने स्नेह से थपकाते हुए उसे सोफे पर बिठा दिया और उसके आँसू पोंछते हुए बोला-'संसार में मन को लगी कुछ ऐसी ही ठोकरों में जीवन का आनंद छिपा है।'

वह चुप रही और सिसकियाँ भरते हुए इस नई समस्या को सुलझाने का उपाय सोचने लगी। हुमायूं ने उसके विचारों का तांता तोड़ना उचित न समझा और चुपके से उठकर चाय तैयार करने लगा।

चाय का धुआं मुँह पर अनुभव करते हुए बेला ने दृष्टि घुमाकर हुमायूं को देखा जो प्याला हाथ में लिए उसे देख मुस्करा रहा था। बेला ने प्याला पकड़ लिया और ओंखों से ही धन्यवाद करते हुए चाय पीने लगी।

'यह आपने अच्छा नहीं किया?'

'क्या बेला' - हुमायूं ने अपने विचारों को बांधते हुए उसकी ओर देखा।

'मेरे मन में आग लगाकर कि वह दीदी के यहाँ हैं - इसका वर्णन मुझसे न किया होता तो अच्छा था।'

'हिम्मत से काम लो - तुम अभी से घबरा गईं - न जाने आगे चलकर अभी कैसी-कैसी बातें लगनी हैं दिल पर।'

'किंतु मुझसे यह न देखा जाएगा - मुझे यह सब भूलना ही होगा।'

'पर भुला न सकोगी, जितना दूर जाना चाहोगी वह बेचैनी काली रात की स्याही की तरह तुमसे लिपटती ही जाएगी।'

'नहीं, ऐसा न होगा - मैं अपने मन से उसकी याद तक मिटा दूँगी।'

'वह तो तुम्हें मिटानी ही होगी - जब दो दिल एक हो जाएँ तो तुम्हें कांटे की तरह बीच में रहना भी नहीं चाहिए - मुमकिन है कि आनन्द और तुम्हारी दीदी सदा के लिए एक हो जाएँ-’

'नहीं, नहीं दीदी' - बेला झुंझला उठी, 'वह ऐसा कभी न करेंगे।'

'नादान हो ना - इंसान की फितरत से नावाकिफ, तुम्हारी यह नफरत दिन-ब-दिन उसकी मुहब्बत को मजबूत बना रही है, एक चट्टान की मानिन्द जिसे तुम कभी न तोड़ सकोगी।'

'तो क्या करूँ - वह तो मुझ पर विश्वास ही खो बैठे।'

'उसे दोबारा पैदा करो।'

'वह कैसे?'

'यह मैं सोचकर बताऊँगा।'

दूसरे दिन हुमायूं कुछ समय निकालकर संध्या के यहाँ गया तो उसे यह सुनकर प्रसन्नता हुई। उसे अपनी मंजिल समीप दिखाई देने लगी। संध्या को विश्वास हो गया कि हुमायूं की सहायता से वह आनंद और बेला के बीच खड़ी घृणा की दीवार को तोड़ देगी।

'आखिर यह सब क्या तमाशा है?' आनन्द ने असावधानी से अपने-आपको सोफे पर फेंकते हुए पूछा।

'एक अनोखी शादी का इंतजाम - एक व्याहता जोड़े में मिलाप की तैयारियाँ यानि बेला और तुम्हारी फिर से सुलह - कहो आनन्द, कैसी रही?'

आनन्द ने उसी असावधानी से हुमायूं की ओर देखा और मुस्कराते हुए होंठो को दबाकर इतना कहा-’शायद तुम नहीं जानते - स्त्री नदी का बहाव है, एक बार छोड़ दे तो लौटकर नहीं आती।'

'किंतु हम बांध लगाकर उसका बहाव ही बदल देंगे', संध्या ने धीमे स्वर में कहा।

'बहाव तो बदला जा सकता है परंतु जल लौटकर न आएगा बल्कि किनारों से हटकर कोई नया मार्ग अपना लेगा।'

'हम भी यही चाहते हैं कि वह टूटे-फूटे किनारों को छोड़कर कोई नया मार्ग अपना ले - किसी वीराने में हरियाली भर दे।'

हुमायूं ताली पीटने लगा और बोला, 'खूब-खूब, आज की बहस तो काफी शायराना है।'

'और आप दोनों का स्वभाव भी - मुझे तो क्षमा कीजिए', मुझे तैयारी करनी है। 'कहाँ की?' हुमायूं ने आँख ऊपर उठाकर आनन्द की ओर देखते हुए पूछा जो भीतर वाले कमरे की ओर जा रहा था।

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