ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
किंतु यह न हुआ और प्रतीक्षा करने पर भी वह वहाँ न आई।
एक दिन संध्या आनन्द से चोरी-छिपे हुमायूं के घर जा पहुँची। वह कुछ समय पहले ही स्टूडियो से लौटा था। संध्या को देखते ही वह विस्मय से चकित रह गया। आज बड़े समय पश्चात् उन दोनों की भेंट हुई थी। शायद वे इससे पहले आनन्द के विवाह पर ही मिले थे।
'आपने मुझे पहचाना नहीं', संध्या ने पहल करते हुए क्हा।
'नहीं तो - बल्कि सोच रहा हूँ - कितने वर्षों बाद देखा है आपको वैसी ही-।'
'मुझे आपसे कुछ पूछना है।'
'कहिए।'
'बेला कहाँ है?'
'बेला - वह तो थोड़ी देर पहले ही यहाँ से गई है।'
'वह तो आपको मिलती रहती होगी।'
'हमारा तो दिन-रात का साथ ठहरा-फिल्मी दुनिया में जो रहना हुआ।' 'तो आपको मेरी सहायता करनी होगी।'
'कहिए' - हुमायूं मुँह पर गंभीरता लाते हुए बोला।
'उसके जीवन की बढ़ती हुई लपटों को रोकना होगा, इससे पहले कि वह आनन्द का सब कुछ जलाकर भस्म कर दे।'
'कहती तो आप ठीक हैं, लेकिन बेला से जरूरी तो आनन्द को समझाना है - शायद आपने उनकी हालत नहीं देखी।'
'वह तो संभल चुके।'
'यानि-’ 'वह आजकल मेरे पास हैं।'
'ओह - तो कहिए मुझे क्या करना होगा?'
'एक स्त्री के मन में आग लगानी होगी।'
'आग - कैसी?'
'जी - बेला के दिल में - डाह की आग - आप तो फिल्मी दुनिया के माने हुए कलाकार हैं। स्त्री की प्रकृति को आप खूब समझते होंगे।'
हुमायूं दो-एक मिनट चुप खड़ा संध्या की ओर देखता रहा। एकाएक जोर से हँसने लगा जैसे संध्या की बातों का रहस्य उसकी समझ में आ गया हो। संध्या भी उसे हँसता देखकर उसका साथ देने लगी।
'तो अब मैं चली' - संध्या ने उसकी हँसी काटते हुए कहा।
'ऐसे नहीं - चाय पिए बिना मैं हरगिज न जाने दूँगा।'
'सच पूछिए तो अभी पीकर आई थी।'
'तो क्या हुआ - एक बार और सही - कहते हैं, चाय और मुहब्बत के लिए कोई वक्त नहीं - जब चाहो और जितनी बार चाहो इनका जाम पी डालो।' चाय पीते समय दोनों के मन में एक विश्वास अंगड़ाइयाँ ले रहा था। उन्हें विश्वास था कि उनकी योजना दो व्यक्तियों के नष्ट होते जीवन को फिर आशा का मार्ग दिखला देगी - वे अवश्य सफल होंगे।
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