ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
|
6 पाठकों को प्रिय 375 पाठक हैं |
गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
'यह माथे पर चोट का घाव ताजा ही लगता है।'
'जी', कठिनाई से उसके सूखे हुए गले से निकला।
'कोई दुर्घटना हो गई क्या?'
'जी - मोटर गाड़ी से टकरा गया था। भूल मेरी ही थी कि रात अंधेरे में होश खो बैठा। वह तो कोई बड़ा दयालु था जो मुझे अस्पताल तक मरहम-पट्टी के लिए छोड़ आया।'
संध्या से और न रहा गया वह होंठों को दबाते हुए धीरे-से बोली-'आनन्द-’ 'संध्या-’
दोनों ने एक-दूसरे को देखा। दोनों की आँखों में आँसू भरे हुए थे जैसे वर्षों की पीड़ा बुलबुले बनकर फूट पड़ी हो। संध्या ने अपने आंचल से उसके आँसू पोंछते हुए कहा- 'यह क्या दशा बना रखी है आपने-’
वही नम्रता, वही मिठास-आज वर्षों के कठोर अनुभव के पश्चात् भी संध्या का मन न बदला था। उसमें द्वेष और घृणा की बास तक न थी बल्कि स्नेह और सहानुभूति का अमृत निकल रहा था।
वह अपने आंचल से उसके आँसू पोंछते हुए तनिक भी नहीं हिचकिचाई। आनन्द ने देखा कि उसके आँसू पोंछते हुए स्वयं उसकी पलकों में अटके हुए अश्रु बह निकले थे।
आनन्द झट से उठ खड़ा हुआ और गंभीर होकर बोला- 'आप मुझे लज्जित न करें - मैं तो यहाँ अपने आप को भूलने के लिए आया था, अपने दबे घाव फिर कुरेदने नहीं।'
'तो कहिए - मैं आपकी क्या सेवा कर सकती हूँ?'
'वह तो आप कर चुकीं - अब मुझे परिश्रम करना होगा।'
'नहीं, मैं आपको मजदूरी न करने दूँगी - आप तो मोटरों के कारखाने के मैनेजर हैं।'
'वह आनन्द मर चुका'
'तो मैं उसे फिर से जीवित करूँगी', संध्या दृढ़ निश्चय में बोली।
'अब मैं एक साधारण व्यक्ति हूँ - मुझे सब भूल जाने दो-’
'असंभव है - आपको अपना हर घाव मुझे दिखाना होगा - नंगा करना होगा।' 'मैं उस तड़प और पीड़ा को सह न सकूँगा।'
'घाव छिपाने से कभी भरते नहीं - ऐसे ही भीतर-ही-भीतर दीमक की भांति खा जाते हैं - कुरेद कर मरहम लगाने से चैन मिलता है।'
आनन्द की आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली। वह दबे हुए तूफान को और न रोक सका। आज उसके जले हुए मन को उसने कुन्दन बनाने को भट्टी में डाल दिया था। दोनों एक-दूसरे के समीप हुए और लिपट गए।
संध्या के कहने पर आनन्द ने बढ़े हुए बाल कटवाकर वह रूप उतार डाला। आज पहली बार उसने दर्पण में अपना पुराना रूप देखा - चन्द ही महीनों में वह कितना बदल गया था, उसके गालों की लालिमा पीलेपन में परिवर्तित हो गई थी - आँखें सूज गई थीं - जैसे बहुत दिनों से सोया न हो या रोग का शिकार रहा हो।
शाम की चाय पर संध्या ने बेला की बात छेड़ दी। पहले तो वह चुप रहा और फिर धीरे-धीरे पूरी कहानी कह सुनाई। आनन्द यह सब यों कह रहा था जैसे कोई अपराधी जज को वार्तालाप सुना रहा हो। वह चुपचाप ध्यानपूर्वक सुनती और सोचती रही।
|