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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

बारी-बारी जब सब भीतर चले गए तो उसकी दृष्टि अंतिम मजदूर को देखकर ठिठक गई। वह भी क्षण-भर के लिए खिड़की के पास आकर रुक गया। उसकी भीतर धंसी हुई आँखों में एक बिजली-सी चमकी जिसे देखकर जरा-सी देर के लिए न जाने क्यों वह कांप गई - उसे यों जान पड़ा जैसे वह उसे जानती है - मन पर अधिकार पाकर वह खिड़की का सहारा लेकर झुककर उसे देखने लगी।

बिल्कुल वही - रात वाला भिखारी जिसे वह अस्पताल में छोड़ आई थी। अभी तक उसके माथे पर ताजा घाव का निशान था - पर वह उसे इतना घूर कर क्यों देख रहा है - वह अपने मस्तिष्क पर दबाव डालकर सोचने लगी - कहीं वह - उसका आनन्द तो नहीं - वे ही चौड़े कंधे-मोटी-मोटी आँखें और उनकी गहराइयों में एक अछूती चमक जो कभी समाप्त नहीं होती।

आनन्द का ध्यान आते ही वह एक बार फिर तनिक कंपकंपा गई - परंतु वह ऐसी दशा में - मजदूरों की पंक्ति में - असंभव है - वह यह सोच ही रही थी कि खान पाशा ने आवाज दी और वह अजनबी आगे बढ़ गया।

खान पाशा और सुंदर खिड़की के पास आकर रुक गए और होंठों पर मुस्कराहट लाकर पूछने लगे-'क्यों दीदी-आज की छांट कैसी रही।'

संध्या का ध्यान अभी तक जाने वाले मजदूर पर था। अपने ध्यान में ही उसने हाँ कहीं, फिर जरा रुककर बोली-'परंतु यह आखिरी मजदूर-’

'देखने में बूढ़ा लगता है - वरना है नौजवान-’ सुंदर ने बात काटते हुए कहा।

'तो इसे जरा यहाँ बुलवा दो।'

थोड़े ही समय में सुंदर उसे साथ लिए वहाँ आ पहुँचा। संध्या ने उसे भीतर आ जाने को कहा और सुंदर को चले जाने का संकेत किया। आंगन से गुजरकर वह बरामदे में आकर खड़ा हो गया।

संध्या अभी तक खिड़की के पास खड़ी थी। आने वाले मजदूर को बरामदे में खड़ा देखकर बोली -'भीतर आ जाइए-’

आनन्द कांप गया। एक तुच्छ मजदूर को किस मान से बुलाया जा रहा था। वह खड़ा रहा परंतु संध्या के पुन: अनुरोध पर वह धीरे-धीरे पाँव उठाता भीतर बढ़ा - जैसे कोई अपराधी जज के बुलाने पर कचहरी के कटघरे की ओर बढ़ता है। उसका मन भय से कांप रहा था।

दोनों की आँखें मिलीं। पहली ही दृष्टि आँखों की पुतलियों से होती हुई मन की गहराइयों में उतर गई। उसे विश्वास हो गया कि आने वाला उसके आनन्द के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं हो सकता - किंतु मन पर अधिकार रखते हुए उसने यह प्रकट न होने दिया कि वह उसे पहचान गई है।

'बैठ जाइए - हाँ, हाँ..उस सोफे पर-’ संध्या ने धीरे से कहा और सोफे की ओर संकेत किया जिस पर बैठने से वह हिचकिचा रहा था।

'इसे अपना ही घर समझिए-’ संध्या ने मुस्कराते हुए फिर कहा-

'किंतु-’ वह लजाते हुए बैठ गया।

'आराम से बैठ जाइए - शायद आपको आराम की जरूरत है।'

आनन्द जरा फैलकर बैठ गया। अभी तक उसकी आँखें ऊपर न उठ रही थीं। संध्या पास बिछी आराम कुर्सी पर बैठ गई और बोली-

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