ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
जब वे बाहर चले गए तो मुँह फेरकर उसने उस खुले द्वार की ओर देखा जहाँ चन्द क्षण-पूर्व उसका जीवन खड़ा था किंतु वह उसे जी भरकर भी न देख सका। नर्स ध्यानपूर्वक आनंद को देख रही थी। निस्तब्धता को तोड़ते हुए बोली-
'इसी देवी ने तुम पर तरस खाया है और आधी रात को घायल उठाकर यहाँ ले आई थी। तुम्हें तो उठकर उसके पांव छूने चाहिए थे।'
'जी - आप ठीक कहती हैं - वह कल भी तो आएँगी।'
'नहीं-’
'वह क्यों?'
'इसलिए कि आज ही आपकी छुट्टी हो जाएगी।' उसने नाक चढ़ाते हुए उत्तर दिया और साफ और मुलायम फर्श पर सैंडिलों से आहट करती बाहर चली गई।
आनंद के मन की हल्की-सी चुभन ने सारे शरीर में पीड़ा की एक चुभन छोड़ दी। वह बेचैन होकर तड़प उठा। एक समय से हृदय में छिपी कसक फिर जाग उठी।
बरामदे में स्तम्भ से पीठ टिकाए संध्या मोतिये की उन बेलों को देख रही थी जिन्हें दो वर्ष पहले उसने लगाया था। आज वह बढ़कर छत तक जा पहुँची थी। हरे-हरे पत्तों पर वर्षा-कण मोती से प्रतीत हो रहे थे। बेलों में छिपा संगमरमर की तख्ती पर खुदा 'नीलकंठ' का शब्द देख उसके मन में गुदगुदी-सी हुई। जीवन की कितनी मजिले गुजर गईं पर 'नीलकंठ' नहीं बदला। उसका मन अब भी किसी की आह सुनकर बेचैन हो उठता - वह उस घाव पर मरहम रखने को दौड़ती - किसी की पीड़ा को बांटने में ही उसे सुख मिलता। रात वाले पागल को अस्पताल में ले जाकर उसकी मरहम पट्टी करवाने में उसे जो आन्तरिक आनंद मिला वह उसे आज तक प्राप्त न हुआ - उसे यों अनुभव हुआ जैसे वह उसे एक समय से पहचानती है - परंतु उसने एक बार भी उसका धन्यवाद नहीं किया।
वह इन्हीं विचारों में डूबी अपने-आप से बातें कर रही थी कि सुंदर और पाशा मामूं ने भीतर प्रवेश किया। सुंदर ने अब शराब पीना बंद कर दिया था। वह कारखाने में बने हुए माल का स्टोर्ज-मैनेजर था। पाशा मजदूरों की देखभाल और समय पर काम चालू करने का उत्तरदायी था।
दोनों को सामने खड़ा देखकर उसके विचारों का तांता टूट गया। साड़ी का पल्लू ठीक करती हुई वह उसके पास आई और पूछने लगी-’कहिए-’
'मजदूरों की छांट करनी है - कुल तीन सौ मजदूर आए थे-’ पाशा मामूं बोले।
'ओह! शहर में बेकारी इतनी बढ़ती जा रही है - कितने चुने-’
'पचास - आवश्यकता तो चालीस की थी - किंतु इतनी बड़ी संख्या देखकर दस और बढ़ा लिए हैं।'
'तो ठीक है, सबको भीतर ले जाओ' - संध्या ने उत्तर दिया।
चुने हुए मजदूर जब भीतर आने लगे तो हर किसी को उस खिड़की के सामने से गुजरना पड़ता था। संध्या सबको बारी-बारी ध्यानपूर्वक देख रही थी - विचित्र प्रकार की सूरतें - कोई भिखारी - कुछ चोरों जैसे - और कुछ ऐसे जैसे अभी पागलखाने की दीवारें फांदकर आए हों - पर उनके ये विचित्र चेहरे देखकर उसे कोई आश्चर्य न हो रहा था - उसने कितने ही चेहरे देखे थे। वह जानती थी कि थोड़े ही समय में वह उन्हें एक नए रूप में ढाल देगी।
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