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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

जब उसने गैरेज से निकलकर बैठक में प्रवेश किया तो सामने खड़ी बेला उसे देख मुस्कराकर बोली-

'आप बुरा तो नहीं मान गए?'

'किस बात का?' आनंद ने उसी भाव में कहा।

'मेरी अशिष्टता का।'

'इसमें आपका क्या दोष', आनंद बात पूरी करते हुए बोला-’यह शरारत तो संध्या की थी।'

इस पर दोनों मुस्करा दिए।

बेला अपने सूटकेस को खोलने का बार-बार प्रयत्न कर रही थी। आनंद ने उसे प्रत्येक बार विफल होते देखकर आगे बढ़ एक ही झटके में ताला खोल दिया। बेला ने मुस्कराकर उसे धन्यवाद दिया।

'आप दिल्ली में किस कॉलेज में पड़ती थीं।'

'लेडी इरविन, और वह भी होस्टल में।'

'ओह! तो आपको होस्टल का जीवन अति प्रिय है।'

'जी! वह जीवन ही कुछ और है।' बेला की यह कहते हुए उन दिनों की स्मृति ताजा हो आई। आनंद उसकी पतली-पतली उंगलियों को देख रहा था, जो सूटकेस में से एक हल्के रंग की साड़ी खींच रही थी।

खोई-सी दशा में जैसे ही बेला ने साड़ी खींची कुछ पत्र-पत्रिकाएँ बाहर आ गिरीं। इससे पहले कि बेला उन्हें उठाती आनंद ने उन्हें उठा लिया और उनके नाम पढ़ने लगा। फिल्म इंडिया, फैशन एंड ब्यूटी और फोटो प्ले, खूब रुचि पाई है।

'छोड़िए! पापा चाय के लिए आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।' बेला ने पत्रिकाएँ अपने हाथ में लेते हुए कहा। आनंद मुस्कराते हुए उठा और लंबे-लंबे डग भरता हुआ खाने वाले कमरे की ओर बढ़ गया।

बेला उसे जाते हुए देखती रही। आनंद, उसके मधुर सपनों की व्याख्या, उसके अंधेरे आकाश में चमकता हुआ तारा, वह सहसा गंभीर हो गई। कहीं मुझसे पहले दीदी ने तो इनके मन में स्थान नहीं पा लिया परंतु दीदी लज्जा और संकोच की प्रतिमा।

'तुम अभी तक यहीं हो?'- लज्जा के स्वर ने उसे चौंका दिया।

'अभी आई दीदी! तुम चाय आरंभ करो।' बाथरूम की ओर जाते हुए बेला बोली।

चाय पीते समय मेज पर बैठे बेला और आनंद की दृष्टि बार-बार मिल जाती। आनंद रोमांचित हो उठता और बेला मुस्करा देती। जब भी वह छिपी दृष्टि से संध्या को देखता कि कहीं वह यह सब देख तो नहीं रही तो वहाँ भी होंठो पर मुस्कान ही पाता।

दोनों बहनों के होंठों पर मुस्कान खेल रही थी। अंतर केवल इतना था कि एक की मुस्कान चंचल थी बिजली की भांति कौंधने वाली, दूसरी सौम्य और शांत फूलों पर फैली ज्योत्सना की भांति। आनंद बैठा मन-ही-मन दोनों की तुलना कर रहा था। बेला की आँखों में मादकता और संध्या के नयनों में संकोच - कितनी भिन्नता थी दोनों में - एक में ज्वाला थी और दूसरी ओस। एक ओर उठती घटाएँ और दूसरी ओर रिमझिम फुहार - एक गरजता झरना थी और दूसरी शांत निर्मल स्रोत। कल्पना के सागर में डूबा आनंद यह भी भूल गया कि वह सबके साथ बैठा चाय पी रहा है। जबकि दृष्टि उसी पर लगी हुई थी। रायसाहब मौन तोड़ते हुए बोले-

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