ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
'संध्या!'
'हाँ पापा!'
सब रायसाहब की ओर देखने लगे।
'आनंद की चाय का प्याला खाली हो गया है और तुम्हें ज्ञात भी नहीं।' 'ओह!' संध्या लजा गई।
आनंद अभी कुछ कह भी न पाया था कि संध्या ने केतली की ओर हाथ बढ़ाया। बेला ने उसे रोक दिया और केतली स्वयं उठाते हुए बोली-
'संध्या के हाथों की बनी चाय तो बहुत पी चुके। यदि अनुचित न हो तो यह प्याला मैं बना दूँ।'
'क्यों नहीं, क्यों नहीं!' सबने एक साथ कहा।
बेला जब चाय डाल रही थी आनंद की दृष्टि बार-बार बेला पर जा पड़ती। गर्म चाय से निकलता हुआ धुआं बेला के केशों में ऐसे विलीन हो रहा था जैसे श्वेत बदली काली घटाओं में समा रही हो।
आनंद के चले जाने के उपरांत दोनों बहनें अपने कमरे में चली आईं। यात्रा की थकान के कारण बेला तो कंबल ओढ़कर लेट गई किंतु संध्या उसके समीप ही बैठकर स्वेटर बुनने लगी।
'दीदी!' बेला ने करवट लेकर पुकारा।
'हाँ बेला?' 'यह आनंद साहब क्या यहाँ प्रतिदिन आते हैं?'
'नहीं तो।'
'सप्ताह में एक-दो बार?'
'नहीं तो, वह तो यहीं रहते हैं।'
'कहां?' बेला विस्मय से कुछ उठते हुए बोली।
'इस घर के प्रत्येक व्यक्ति के मन में।'
'हट जाओ।' वह एक दीर्घ निःश्वास लेते हुए फिर लेट गई।
'मैं झूठ थोड़े ही कह रही हूँ, तुम्हीं कहो क्या तुम्हारे मन को नहीं भाए।' 'मन भाए?' बेला ने यह कह लाज से मुँह सिरहाने में छिपा लिया। दो क्षण मौन के पश्चात् बोली-
'नहीं।'
'वह क्यों?'
'रुचि अपनी-अपनी।'
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