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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास

आनंद से यह न देखा गया कि कोई उसकी उपस्थिति में उसका यों उपहास उड़ाए। उसने लपककर लड़के का हाथ पकड़ लिया और जोर से झटका देते हुए बोला -

'यह क्या करता है?'

'कालिख लगाता हूँ - कहीं हमारे मन की रानी को नजर न लगे।'

'रानी - मन की रानी-’ आनंद ने मुँह मोड़ लिया। उसके कानों में उस छोकरे की हंसी जहर बनकर लगी। वह चुपचाप से देखने लगा और छोकरा उछलता-कूदता दूर चला गया। उसने फिर तस्वीर को देखा जो उन मूंछों में बड़ी विचित्र लग रही थी। अभी तक उसका ध्यान फिल्म के नाम पर न गया था और अब एकाएक उसके नीचे 'सपेरा' पढ़कर उसे अनुभव हुआ कि वहाँ कोई नागिन थी। तस्वीर काटने को दौड़ी और आनंद लंबे-लंबे डग भरता हुआ मुँह फेरकर बाहर जाने लगा। उसकी दृष्टि स्टेशन पर लंबे-लंबे स्तंभों से टकराती और वह कांप जाता। हर स्थान पर सपेरन का इश्तहार लगा हुआ था। कई तस्वीरें नागिन बनी डसने को बढ़ रही थीं - वह और तेज चलने लगा। स्टेशन को छोड़कर अब वह खुली सड़क नापने लगा। हर नुक्कड़, हर चौक पर उसे वही तस्वीर दिखाई दी। सपेरन-सपेरन, वह रुकता, मुट्ठियाँ भींच आँखें बंद कर लेता। वह उजाला उसे खाए जाता था और वह अंधेरे में जाना चाहता था। उसके पांव एक पुल के नीचे अंधेरे में रुके। उसने ऊपर आकाश की गहराईयों को देखा, अंधेरी रात में सितारे अपने पूरे यौवन पर थे। वह दीवार का सहारा लेकर वहीं फुटपाथ पर बैठ गया।

आनंद का शरीर थकावट से टूट रहा था। किंतु फिर भी नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी। मस्तिष्क पर जोर देने से वह आसपास के मकानों को पहचानने लगा। उसे याद आ गया - यह सैंडहर्स्ट ब्रिज था। थोड़ी दूर उसका दफ्तर था जहाँ किसी समय वह सेल्स मैनेजर था और जब कभी वह गाड़ी में इस पुल से गुजरता तो फुटपाथ पर पड़े हुए लोग मुर्दों की पंक्ति प्रतीत होते थे और आज उन मुर्दों में एक लाश उसकी भी थी। उनमें और इस लाश में अंतर केवल इतना था कि वे शांति में पड़ी थीं और यह जीवन की चोटों से तड़प रही थी।

दफ्तर से थोड़ी दूर हुमायूं का स्टूडियो था, जहाँ प्रायः वह शाम को चला जाया करता। आज उसी स्टूडियो में उसकी इज्जत की नीलामी हो रही थी और उसका मित्र आवाजें देकर बोली को बढ़ा रहा था। वह क्रोध से तिलमिला उठा। स्टूडियो की दीवारें, हुमायूं, सेठ, बेला, बारी-बारी सब उसके मस्तिष्क पर हथौड़े चलाने लगे। वह आँखें फाड़-फाड़कर उस रास्ते को देखने लगा जो स्टूडियो की ओर चला जाता था - न जाने क्या सोचकर वह उसी रास्ते पर बढ़ गया।

रात आधी से अधिक बीत चुकी थी। स्टूडियो का फाटक आधा बंद हो रहा था। पहरे का पठान नींद में ऊंघ रहा था। आनंद धीरे-धीरे सांस रोककर उस फाटक के भीतर चला गया और उधर हो लिया जहाँ से उजाला आ रहा था।

किसी ने बताया सपेरन की शूटिंग हो रही है। सपेरन का नाम सुनते ही उसके मन को धक्का-सा लगा। वह बढ़ते-बढ़ते हॉल के दरवाजे तक जा पहुँचा जो भीतर से बंद था। वह हॉल के पीछे वाले दालान में जा बैठा। सेठ साहब की गाड़ी भी वहीं खड़ी थी। वह जानता था कि फिल्म के बड़े-बड़े अभिनेता और अभिनेत्रियां पीछे से ही गाड़ी में बैठकर बाहर निकल जाते हैं और बाहर वाले दरवाजे पर लोग प्रतीक्षा करते-करते लौट जाते हैं।

मौन वातावरण में गुनगुनाहट हुई और फिर किसी के हंसने की आवाज थी। 'बेला वंडरफुल, ऐक्सीलेंट - मुझे आशा न थी कि तुम गुणों का सागर छुपाए हुए हो।'

'इस प्रशंसा का धन्यवाद।' इस वाक्य ने आनंद के मन पर बिजली का-सा काम किया, आज एक समय पश्चात् उसे अपनी बीवी की आवाज सुनाई दी थी - कितनी कोमलता थी उसके स्वर में - आनंद को यों अनुभव हुआ कि कोई नर्तकी किसी सेठ का धन हड़पने के बाद उसका धन्यवाद कर रही है।

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