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नीलकण्ठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :431
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9707
आईएसबीएन :9781613013441

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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास


सोलह

यह बेला का पांचवां पत्र था जो सवेरे की डाक से आनंद को मिला। आनंद ने ध्यानपूर्वक लिफाफे को उलट-पलटकर देखा और यों ही मेज पर रख दिया। आज का लिफाफा फिल्म-कंपनी का ही लिफाफा था जिस पर बेला की तस्वीर थी। मुस्कराती हुई, एक सुंदर लहंगा पहने वह बैलगाड़ी का सहारा लिए खड़ी थी। पहली ही फिल्म में शायद उसे गांव की सुंदरी का रोल मिल गया था। बेला गई किंतु आनंद के मन की उलझनें न गईं। वह पागल हुआ जा रहा था। लज्जा से वह वर्कशॉप में गश्त न करता। जहाँ जाता लोग टुक-टुक उसे देखने लगते जैसे उसने किसी का खून किया हो। डर से उसके सामने सब चुप रहते किंतु उसके थोड़ी दूर जाने पर उनकी खुसर-फुसर की भनक उसके कानों में पड़ जाती। सब यही कहते होते - इसकी बीवी घर-बार छोड़कर बंबई की एक फिल्म-कंपनी में हीरोईन का काम कर रही है। बहुत सुंदर थी।

ऐसी बातें सुनकर वह तिलमिला जाता और अपने कमरे में आकर चुपचाप बैठ जाता। काम का ढेर लगता जा रहा था, पर उसका दिमाग काम न करता। मजदूर कामचोर हो गए परंतु आनंद को इतना साहस न होता कि उनको बुलाकर डांट सकता।

इज्जत-पैसा-नाम - उसने लिफाफा उठाकर फिर बेला की तस्वीर को देखा और बिना पढ़े उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। पत्र के टुकड़े खिड़की में से उड़कर दूर तक हवा में बिखर गए। आनंद के मन को ठेस-सी लगी। उसे प्रतीत हुआ जैसे उसकी इज्जत की धज्जियाँ उड़ी जा रही हों।

आनंद का यह दीवानापन सीमा से बढ़ गया और उसने नौकरी से त्याग-पत्र दे दिया। घर का सामान खंडाला भिजवाकर वह बीनापुर छोड़कर चल दिया - बहुत दूर - बंबई और उन लोगों से दूर जो उसे देखकर हंसने लगते थे - वह उस वातावरण से बहुत दूर जाना चाहता था जहाँ की सरसराती हुई हवा में भी विषैली हंसी की गूंज थी - वह बस्तियों में गया, वीरानों में घूमा, पहाड़ों की एकांत चोटियों पर गया - पर उसे कहीं शांति न मिली। वह तीर्थ-स्थानों में भी गया जहाँ की पवित्र भूमि पर लोग मन का सुख पाते हैं, परंतु उसका सुख, उसका चैन उससे कोसों दूर भाग चुका था। उसे तनिक भी चैन न मिला। उसकी मानसिक उलझनें क्षण-भर के लिए न रुकीं। उसके व्याकुल मन में स्थिरता न आई।

आखिर उसे उसी दुनिया में लौट आना पड़ा। वह बंबई लौट रहा था और तीसरे दर्जे के डिब्बे में बैठा खिड़की से बाहर दौड़ती हुई जमीन को देख रहा था - धरती घूमे जा रही थी - पत्थर, पेड़, ऊँचे-ऊँचे पहाड़, लंबी-लंबी नदियाँ हर चीज उसकी दृष्टि में घूम रही थी। उसे लग रहा था जैसे उसी की भांति-संसार की हर वस्तु मंजिल की खोज में भागी जा रही है। अंतर केवल इतना था कि इन्हें अपनी मंजिल का ज्ञान था और वह बिना कुछ जाने भटक रहा था, परेशान था। खिड़की पर आधे उतरे हुए शीशे पर उसकी दृष्टि पड़ी तो अपनी ही सूरत देखकर वह चौंक गया। बड़े दिनों बाद उसने आज अपनी सूरत देखी थी। आँखें अंदर धंस गई थीं। लंबे बढ़े हुए बाल जिन पर न जाने कब से कंघी नहीं हुई थी। दाढ़ी बढ़कर उसे भयानक बना रही थी। मुँह की रंगत यों हो गई थी मानों सफेदी को धुएं से झुलसा दिया गया हो। वह भी बिल्कुल बदल चुका था। उसे शायद इस दशा में कोई निकट संबंधी भी न पहचान सकता। वह सचमुच पागल दिखाई देता था। लोग उसे भयभीत दृष्टि से देखते जैसे वे इस सूरत के पीछे छिपी कहानी को पढ़ना चाहते हों।

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