ई-पुस्तकें >> नीलकण्ठ नीलकण्ठगुलशन नन्दा
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गुलशन नन्दा का एक और रोमांटिक उपन्यास
वह कई दिनों से फिल्म-कंपनी के सेठ से आनंद से चोरी छिपे इस विषय में पत्र-व्यवहार कर रही थी और आज जब आशा की किरण दिखाई दी तो वह आँखें बंद करके सो जाने को कहते हैं - यह क्योंकर हो? निकलते सूर्य को देखकर मैं द्वार बंद करके अपने घर में अंधेरा क्यों कर लूँ। शायद आनंद मेरी पिछली बातें सोचकर अब मनमानी नहीं करने देगा। शायद वह सोचता है कि पुरुष ही स्त्री का अंतिम और एकमात्र सहारा है। वह अपने बलबूते पर कुछ नहीं कर सकती। वह बैठी-बैठी न जाने क्या सोचने लगी - शोर मचाने से कुछ न होगा। जबरदस्ती वह असम्भव है। क्रोध दिखाने से और आग भड़केगी। तो उसे क्या करना चाहिए? बुद्धि से काम लेना होगा। इस ठण्डी आग को चिंगारी दिखाने से क्या लाभ।
दो-चार दिन बीत गए, फिल्म में काम करने के विषय में बेला ने कोई बात न की बल्कि उसी चाल और लगाव से बर्ताव करती रही कि आनंद क्षण-भर के लिए भी संदेह न कर सके।
एक रात जब आकाश पर चांद को बादल के टुकड़ों ने अपनी ओट में छिपा रखा था, घाटी में ठहरी हुई हवा गूंजने लगी। प्रतीत हो रहा था जैसे तूफान आने वाला है। आनंद चुपके से उठा और कमरे में चारों ओर दृष्टि दौड़ाने लगा। रात का अंधेरा कभी इतना साफ न था। कमरे के बाहर एक विचित्र मौन था। इसी मौन में हर चीज बतला रही थी कि बेला भाग गई - बह एक नई दुनिया में भाग गई।
बिस्तर पर पड़ा बंद लिफाफा भी उससे यही कह रहा था। आनंद ने कांपती उंगलियों से उसे उठाया किंतु पढ़ने का साहस न कर सका।
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