ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
जाड़ों में एक दिन गौरा ने आकर सहसा कहा, “भुवन दा, आप हमें मालविकाग्निमित्र का एक रूपान्तर कर देंगे। बड़े दिनों में हम नाटक खेलना चाहते हैं, और किसी ने सुझाया है।”
भुवन ने अचकचा कर कहा, “क्या?”
“जी। मालविकाग्निमित्र। शायद संस्कृत के प्रोफ़ेसर साहब की राय थी।”
“तुम्हारा दिमाग ख़राब है क्या? मैंने तो पढ़ा भी नहीं। इतना जानता हूँ कि कालिदास का नाटक है; मालविका के नृत्य का एक चित्र भी कहीं देखा है, बस”
“तो क्या हुआ, पढ़ लीजिए न? कितनी देर लगती है? कहानी तो मैं अभी बता देती हूँ-”
“यह खूब रही। अरे भई, एडैप्टेशन किसी जानकार का काम है, मैं कैसे कर सकता हूँ? और तुम क्या मालविका का पार्ट करोगी? नाचना आता है?”
गौरा कुछ सकपका गयी। फिर बोली, “सीखना तो शुरू किया है।”
“अच्छा! तब तो और मुसीबत हुई। कल को मुझ से त-त-थेई और त्राम्-त्राम् के मतलब पूछोगी।”
“नहीं भुवन दा, ये तो कथक बोल हैं, मालविका तो भरत नाट्य करेगी।”
“हाँ तो। पर उसके बोल कैसे होते हैं यह तो मुझे नहीं मालूम न! मेरे लिए तो त्राम्-त्राम् ही है। यानी त्राहि माम्।”
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