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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


तब से वह परिचय बना ही हुआ था। दो वर्ष बाद गौरा ने मैट्रिक कर लिया था। प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होकर कालेज में भर्ती हो गयी थी। उसके बाद पढ़ाई तो बन्द हो गयी थी, पर परिचय बढ़ता रहा था, क्योंकि गौरा कालेज में भी जब-तब उससे न केवल विज्ञान बल्कि साहित्य के विषय में बहुत कुछ पूछती रहती थी, और भुवन जब यह कह कर अपनी अपात्रता जताता था कि, “भई, मेरा विषय तो विज्ञान है, वह भी भौतिक विज्ञान, ये बातें तो तुम्हारे प्रोफ़ेसर ही बताएँगे,” तब वह आग्रह करके कहती थी, “इसीलिए तो आप ठीक बताएँगे। उनका विज्ञान अपने अंग्रेजी के प्रोफेसर जो विषय है वे लोग किताबों में से बताते हैं आप रुचि से बताते हैं आपकी बात ज्यादा सच होती है और मेरी समझ में जल्दी आ जाती है।” भुवन हँसी में कहता “इसका मतलब है कि विज्ञान पढ़ने तुम उनके पास जाओगी? अच्छी बात है, अब से पूछना, खबरदार मुझसे कभी कोई प्रश्न पूछा जो!” पर साथ ही मन लगा कर उसकी जिज्ञासाओं का उत्तर भी देता। कभी-कभी इसमें स्वयं उसे काफी परिश्रम करना पड़ता; पर वह मानता था कि अध्यापन का श्रेष्ठ सम्बन्ध वही होता है जिसमें अध्यापक भी कुछ सीखता है, और इस परिश्रम में कोताही नहीं करता था। बल्कि इस तरह अपने साहित्य-ज्ञान के विकास में उसे अतिरिक्त आनन्द मिलता था।

गौरा ने विधिवत् संगीत सीखना भी आरम्भ कर दिया था, और कालेज की नाटक आदि अन्य कार्रवाइयों में हिस्सा लेना भी। इसके लिए भी वह बहुधा भुवन से परामर्श लेती; भुवन इन मामलों में बिल्कुल कोरा होने की दुहाई देता तो वह कहती, “और सब भी तो कोरे हैं-आप कुछ ढूँढ़ दीजिए न, या सोच कर बताइए न!” और उसके आग्रह की प्रेरणा से भुवन तरह-तरह की पुस्तकें पढ़ता, खोज करता, अनुमान भिड़ाता और उनकी पुष्टि के लिए फिर और पढ़ता या कभी दूर-दूर के विशेषज्ञों से पत्र-व्यवहार करता। इस प्रकार विभिन्न क्षेत्रों के शोध में, उनके असमान सम्बन्ध में क्रमशः परिवर्तन होता गया था, 'मास्टर जी' से वह क्रमशः 'भुवन मास्टर जी' होकर 'भुवन दा' हो गया था और एक नया, समान प्रीतिकर सख्य भाव उनमें आ गया था।

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