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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।

2


फिर वह सिनेमा के पोर्च के अन्दर घुस गया।

तथ्य और सत्य के बारे में चन्द्रमाधव और भुवन की राय नहीं मिलती। कालेज ही से इस बात को लेकर उनमें बहस होती आयी है। रागात्मक लगाव की बात तो दूर रही-तथ्य ही लोगों के अलग-अलग होते हैं। इतिहास की घटनाओं से तो हमारा रागात्मक सम्बन्ध नहीं होता - फिर क्यों दो इतिहासकार दो इतिहास लिखते हैं? इसलिए कि दोनों भिन्न-भिन्न तथ्य चुनते हैं। रागात्मक लगाववाली बात मान लें, तो जो सत्य है, वही झूठ है क्योंकि वह पूर्वाग्रह-युक्त तथ्य है - और ऐतिहासिक तथ्यों पर पूर्वाग्रह लादना ही सारे झूठ की जड़ है और ऐसे झूठे इतिहासों ने ही दुनिया में फूट और लड़ाई के विष-बीज बोये हैं...।

चन्द्रमाधव के जीवन के ही तथ्य ले लें। भुवन को यही दीखता है कि अच्छी तरह पास करके वह विदेश चला गया था, विदेशों में बहुत घूमा है और सदा सनसनी की खोज में - भुवन के मत से उसका सारा जीवन सनसनी की लम्बी खोज है, और वह यह भी ज़रूर सोचता होगा कि निरी सनसनी की खोज से व्यक्ति की सूक्ष्मतर संवेदनाएँ भोंडी हो जाती हैं और वह सिवाय तीखी उत्तेजना के कुछ समझता ही नहीं, लिहाजा चन्द्रमाधव भी एक तरह का नशेबाज है और जीवन की महत्त्वपूर्ण चीज़ों को नहीं पहचान सकता। भुवन का दुःख-पूजा का एक सिद्धान्त है : पीड़ा से दृष्टि मिलती है। इसलिए आत्मपीड़न ही आत्म-दर्शन का माध्यम है? क्या दलील है!

भुवन अकेला है; घर-गिरस्ती की चिन्ताएँ उसने जानी नहीं, दुःख की दूर से रोमांटिक कल्पना की है, इसीलिए बातें बना सकता है। अगर सचमुच दुःख उसने जाना होता-दुःख कैसे तोड़ कर, चूर-चूर करके रख देता है, दृष्टि देना तो क्या, आँखों को अन्धा करके, पपोटे निकालकर उनमें कीचड़ भर देता है, यह देखा होता - तो उसकी जबान ऐंठ जाती...।

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