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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


चन्द्रमाधव ने सनसनी खोजी है? असल में उसने जीवन खोजा है, तीव्र बहता हुआ प्लवनकारी जीवन, और वह उसे मिला कहाँ है? मिली हैं ये छोटी-छोटी टुच्ची अनुभूतियाँ, चुटकियाँ और चिकोटियाँ - और उसके किस दोष के कारण? प्यार? नहीं, बीबी-बच्चे। स्वातन्त्र्य? नहीं, तनख़्वाह। जीवनानन्द? नहीं, सहूलियत, घर, ज़ेब-खर्च, सिनेमा, पान-सिगरेट, मित्रों की हिर्स...।

कालेज छोड़ने के अगले वर्ष उसकी शादी हो गयी थी। लड़की साधारण पढ़ी थी मैट्रिक और भूषण पास; साधारण सुन्दरी थी - साफ रंग, अच्छे नख-शिख; साधारण बुद्धिमती थी - घर सँभाल लेती थी, साथ घूम लेती थी, मित्रों-मेहमानों से निबाह लेती थी और पढ़े-लिखों की बातचीत में आत्म-विश्वास नहीं खोती थी। पत्नी ने उससे कुछ अधिक माँगा नहीं था, साधारण गिरस्ती की जो माँगें होती हैं बस; कुछ अधिक दिया भी नहीं था, साधारण गिरस्ती जो देती है, बस। दो बच्चे, साफ-सुथरा घर, बिना झंझट के खाना-सोना, छोटा-सा बैंक बैलेंस, दिल-बहलाव की साधारण सहूलियतें।

मध्यवर्गीय मानदंडों से उसके पास सब कुछ था - और कोई क्या चाह सकता है? पर दूसरे बच्चे के - पहली सन्तान लड़की थी, दूसरी लड़का - बाद वह गिरस्ती से टूट गया था। कोई झगड़ा हुआ हो, शिकायत हो, ऐसी बात नहीं थी; बस यों ही तबियत उचट गयी थी, और वह पत्नी और बच्चों को छोड़ आया था। खर्चा भेज देता था, कभी-कभार चिट्ठी लिख देता था, बस इससे अधिक उलझन नहीं थी, न वह चाहता था। बच्चे बड़े होंगे तब पढ़ाई-वढ़ाई का प्रश्न उठेगा, अभी तो कोई चिन्ता नहीं, और पहले दो-चार बरस तो माँ ही देख-भाल लेगी - फिर बड़ी तो लड़की है, उसकी पढ़ाई की कौन इतनी चिन्ता है, लड़के की शुरू से फिक्र होती है...।

अकेले रहना बुरा नहीं था। गिरस्ती का अनुभव हो जाने के बाद तो वह प्रीतिकर भी था - उसमें एक आजादी और आत्म-निर्भरता थी, जिसका मूल्य शायद बिना गिरस्ती के अनुभव के समझा ही नहीं जा सकता था। और वह जो काफ़ी हाउस का उसके जीवन में एक स्थान बन गया है, यह भी एक चीज़ है। उसे समझने के लिए भी वैसा बैकग्राउंड चाहिए। बिना भोगे कोई उस स्थिति को नहीं समझ सकता है।

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