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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


“सुनाऊँगी”

“कब? अभी नहीं?”

“न! अभी गा सकती, पर तुम्हारे सामने गाऊँगी नहीं, और यहाँ पर तो नहीं ही। फिर एक दिन।”

“फिर एक दिन!” भुवन का स्वर थोड़ा उदास हो आया। “थोड़े-से तो दिन और हैं, फिर मैं वापस जो चला जाऊँगा।”

“थोड़े-से? ऐसा मत कहो, शिशु, देखो, मैं भी नहीं कहती - बहुत दिन आएँगे आगे। नहीं तो मैं यहीं बैठी रहूँगी, फ्रंट पर तुम जाओगे; दिनों की लघुता मैं जानती हूँ कि तुम!”

भुवन अचम्भे में उसे देखने लगा। देखता रहा। गौरा ने पूछा, “क्या ताक रहे हो?”

“मसूरी में तुम्हारे चेहरे पर एक कान्ति देखी थी, जो पहले नहीं देखी थी। वही देख रहा था। चाहता हूँ, हमेशा उसे देख सकूँ।”

गौरा ने रुकते-रुकते कहा, “मेरी कान्ति तो तुम हो, पगले!”

13


बंगलौर से भुवन मद्रास गया; छुट्टी से लौटकर वहीं रिपोर्ट करने का आदेश उसे मिला था, वहीं से जहाज़ में वह फिर फ्रंट पर जाएगा। तीसरे पहर उसे बन्दर पर हाज़िर होना था; दोपहर को वह गौरा के साथ समुद्र की ओर गया - वहीं विदा लेकर वह चला जाएगा, गौरा बन्दर पर नहीं जाएगी... ऐसा ही उसने चाहा था, और गौरा ने उसकी बात समझ कर मान ली थी।

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