लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

390 पाठक हैं

व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


भुवन ने कहा, “गौरा, कुछ आदिम जातियों का विश्वास है कि आत्मा शरीर से अलग रखी जा सकती है - उनके वीर जब युद्ध करने जाते हैं तो आत्मा किसी चीज़ में घर रख जाते हैं - पोटली बाँधकर खूँटी पर भी टाँग जाते हैं।”

गौरा ने अविश्वास से कहा, “नहीं!”

“हाँ, सच! और अब की - मैं अपनी आत्मा तुम्हारे पास रखे जा रहा हूँ - उसे सँभाल रखोगी न?”

गौरा ने उसकी ओर देख-भर दिया। उसकी साँस जल्दी चलने लगी, वह बोल नहीं सकी।

“और पोटली बाँधकर नहीं रखूँगा - तुम्हीं में है वह।”

“मैं जानती हूँ भुवन, मेरी साँस है वह।”

“मैं लौटूँगा, गौरा। काम वहाँ बहुत है, बहुत कड़ा है; तुम्हारा भी काम है – पर - काम अपने-आप से टूट कर नहीं है...” वाक्य उसने अधूरा छोड़ दिया, मानो भूल गया कि वह क्या कह रहा है।

वर्दी की ज़ेब से एक पुस्तक उसने निकाल कर गौरा को दी।

“यह लो गौरा, कुछ कविताएँ हैं, लारेंस की। अस्पताल में तुम आयी थी तब यही पढ़ रहा था। एक कविता है...” कहते-कहते उसने पुस्तक खोली, 'ए मैनिफ़ेस्टो'। वही तब पढ़ रहा था। आज बता देता हूँ। तुम पढ़ना - तुम्हें अचम्भा होगा। पढ़ इसलिए रहा था कि उसके अंश मैं अपनी कापी में लिखना चाहता था, पर मेरे शब्द अधूरे थे, लारेंस कह गया था...” वह रुक गया। फिर बोला, “वह तो तुम अपने-आप पढ़ना; एक दूसरी है जिसकी तीन-चार पंक्तियाँ तुम्हें सुना देता हूँ-मुझे याद हैं।”

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book