ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
कमरा साफ़-सुथरा था; होटल के कमरों से उसमें अन्तर इतना था कि फर्नीचर कम था, एक तरफ़ एक तख्त पड़ा था जिसे गौरा ने अपने ढंग से सजा रखा था। इसी पर गौरा ने भुवन को बिठाया था।
गौरा की उँगलियाँ भुवन के बालों में से तिरती हुई पार निकल जातीं और फिर लौट आतीं; फिर उसने सहसा बाल हिलाकर उलझा दिये और मधुर स्वर में पूछा, “भुवन, अब वचन दोगे?”
“हाँ, गौरा। अब वचन देता हूँ।”
गौरा फिर धीरे-धीरे बाल सहलाने लगी।
“अब नहीं भागूँगा। पहले बहुत भागा। पहले जानने से भागा; पिछली बार - मसूरी में जब वह सम्भव न रहा तो स्वीकृति से भागा। मसूरी में - मैंने सहसा देखा कि मेरे आगे एक मेघ है और वह तुम्हारे बालों का है - तो जान लिया - जान क्या लिया, तुम ने कह दिया और मुझे लगा कि जान कर ही तुम ने कहा है, नहीं तो तुम भी कैसे कह पाती? मैंने तुम्हें कहा था-कुछ हँसी में ही सही, कहा तो था - कि जिस दिन ऐसा होगा जान लूँगा कि कि मेरी खोज - मेरे लिए खोज - समाप्त हो गयी और पड़ाव आ गया। पर-” वह चुप हो गया। फिर सहसा उठकर उसने पूछा, “गौरा, तुम सोचा करोगी न कि मैं कितना बुद्धू हूँ?”
गौरा खोयी-सी मुस्करा दी। “सोचा करूँगी! क्यों, भविष्य की क्यों - शिशु तो तुम हो ही, अब भी हो, हमेशा ही थे।”
“और तू बड़ी सयानी आयी है कहीं से चल के!” भुवन ने हलका-सा चपत उसके गाल पर लगा दिया। फिर तख्त पर बैठते हुए, बदले स्वर में बोला, “गौरा, तुम्हारा संगीत तो मैंने सुना ही नहीं कभी - मसूरी में चोरी से ही सुना था सितार।”
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