ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
गौरा के जीवन की एक लीक बनने लगी-न बहुत गहरी कि उससे उबरा न जा सके, न बहुत कड़ी कि उसे मिटा कर नयी लीक न डाली जा सके, फिर भी एक लीक। प्राणी जब शरीर को बाँधकर रखता है, तब उसका विद्रोह मिट्टी को खूँदने के रूप में प्रकट होता है, जब मन को बाँधता है, तब वह विद्रोह एक पटरी पर निरन्तर आती-जाती गति के रूप में प्रकट होता है-जब तक कि वह विद्रोह है; यह दूसरी बात है कि धीरे-धीरे भीतर वह विद्रोह मर जाये, पटरी क्रमशः फ़ौलादी लीक बन जाय जिससे इधर-उधर हटना मुक्ति नहीं, पटरी से गिर जाना हो, उलट जाना हो...
रेखा को भी उसने एक-आध पत्र लिखा; रेखा का उत्तर भी आया। उत्तर में अपनापा भी था, पर एक तटस्थता भी; कुछ यह भाव कि मेरी तरफ़ से कोई यन्त्र या सीमा नहीं बनायी गयी है, पर मैं स्वयं अपने भीतर अन्वेषण में खोयी हुई हूँ और बाहर से मेरा सम्बन्ध उदार दृष्टि का ही है, बाहर की ओर बहने का नहीं...इतना उसे ज्ञात हुआ कि रेखा फिर अस्वस्थ है, अस्वस्थ ही रहती है, और यत्न कर रही है कि उसका काम उसे विदेश ले जाये-कदाचित् पश्चिम की ओर वह चली भी जाएगी।
होली पर उसने भुवन को एक लिफ़ाफे में भरकर थोड़ा अबीर और अभ्रक का चूर भेजा; साथ यह आग्रह करके कि इसे वह गौरा की ओर से अपने मुँह पर मल ले; कुछ दिन बाद उत्तर आ गया, और अगली डाक से एक पैकेट में कुछ सूखे फूल। पत्र में भुवन ने लिखा था कि होली उसने खेल ली, दो-एक फ़ोटो भी रंगे मुँह के लिए गये थे जो वह शायद बाद में भेज सके; अलग डाक से वह कुछ फूल भेज रहा है जो स्थानीय श्रेष्ठ उपहार है-एक केवड़े का, और कुछ नाग-केशर के : केवड़ा तो खैर परिचित है, पर नाग-केशर उसने पहले नहीं देखा था और गौरा ने भी कदाचित् न देखा होगा-इसका भव्य वृक्ष और इकहरे सफ़ेद जंगली गुलाब-सा फूल दोनों ही दर्शनीय हैं। और गन्ध-गन्धमादन पर्वत जहाँ भी रहा हो, उसका नाम ज़रूर नाग-केशर की गन्ध के कारण ही पड़ा होगा...।
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