ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
यह तुम्हारा प्रश्न ठीक है कि ऐसे आदमी कैसे कम्युनिस्ट हो सकते हैं; मेरा ख्याल है कि ऐसे सम्पन्न साम्यवादी, साम्यवादी क्षेत्र में भी उतने ही अविश्वसनीय होते हैं जितने उस क्षेत्र में जिससे वे भागते हैं-यानी जिसके उत्तरदायित्व से भागते हैं पर जिसकी सहूलियतों और विशेषाधिकार को नहीं छोड़ना चाहते। और मैं समझता हूँ कि वे तब तक अविश्वसनीय रहते हैं, जब तक कि कोई बड़ी कुण्ठा उन्हें सदा के लिए पंगु नहीं बना देती-कुण्ठित व्यक्ति ही विश्वास्य वर्गवादी बन सकता है...मज़दूर वर्ग के जो हैं, उन्हें तो सामाजिक वर्गीकरण का और वर्ग-स्वार्थों का उत्पीड़न कुण्ठित किये ही रहता है, जो वर्ग-समाज में ऊँचे पर होते हैं वे किसी दूसरे प्रकार से कुण्ठित होकर पक्के हो जाते हैं। चन्द्रमाधव भी अत्यन्त कुण्ठित व्यक्ति है-जब तक नहीं था, तब तक उसमें असन्तोष बहुत था पर यह रूप उसने नहीं लिया था : अब वह कुण्ठित हो चुका है और उसका असन्तोष युक्ति से परे हो गया है-कुण्ठित होना अब उसके जीवन की एक आवश्यकता बन गया है, उसकी कुण्ठा और उसका वाद परस्पर-पोषी हैं, और एक-दूसरे को और गहरा पहुँचाते हैं। किसी पर दया करना पाप है, नहीं तो मैं चन्द्र को दया का पात्र मान लेता। अब इतना ही कहूँ कि वह भी 'वन मोर ट्रायम्फ़ फ़ार डेविल्स एण्ड सारो फ़ार एंजेल्स* है...” (* शैतान की एक और विजय, देवताओं का एक और दुःख -ब्राउनिंग)
पत्र में अन्तरंग बात कुछ नहीं थी। गौरा को कुछ निराशा तो हुई, पर अधिक नहीं; उसे इसी में स्वाभाविकता दीखी, कुछ यह भी लगा कि यही उसकी वर्तमान स्थिति को सहनीय बनाता है, नहीं तो वह व्याकुल हो उठती। पत्र में कुछ औपचारिक आत्मीयता की बात होती तो अधिक क्लेशकर होती, आत्मीयता की कोई बात ही न होना उदासीनता का नहीं, अनुशासन का द्योतक था; और आत्मानुशासन अगर भुवन के लिए सहज है तो उसके लिए और भी सहज होना चाहिए-सहज और हाँ, उपयोगी भी क्योंकि वह जीवन को माँजेगा और एक नयी कान्ति, नयी गहराई भी देगा...
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