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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


फिर उसने लिखना आरम्भ किया था कि “ये फूल तुम पहन लेना” लेकिन इस वाक्य को काट कर लिखा था “तुम तक पहुँचते फूल तो सूख जाएँगे - पर गन्ध शायद बनी रहे; उसे सूँघो तो स्मरण कर लेना कि मेरे स्नेह की साँसें भी तुम्हारी स्मृति को घेरे हैं।”

लेकिन जो सूखे फूल गौरा तक पहुँचे उनमें गन्ध भी नहीं थी। यह सूचना उसने भुवन को दे दी-”तुम्हारे भेजे हुए फूल मिले पर उनकी गन्ध तो उड़ गयी। काश! मैं भी ऐसे ही उड़ जा सकती, उड़कर शून्य में विलीन होने नहीं, उन पेड़ों तक पहुँचने को, जिनके नीचे बैठकर तुम उनकी सुगन्ध नासा-पुटों में भरते होगे, जिनके नीचे तुम्हें मेरी याद आयी। तुम्हारी साँसें मेरी स्मृति को घेरती हैं-(?)-पर मुझे भुवन, मुझे? मुझ से तुम दूर-ही-दूर जाते हो और जाते रहे हो। अच्छा, जाओ, जहाँ भी जाओ, मुक्त रहो; जो दूर रहना चाहता है, उसके पास जाने की कोशिश क्यों-और तुम्हारी वैसी साधना है तो उसे मैं क्यों विफल करने लगी! मैंने सोचना चाहा था कि तुम जा नहीं सकोगे, पर नहीं सकी, और अब यत्न भी नहीं करती। तुम पहले भी चले गये थे; 'धागा-मनका तोड़कर' चले गये थे, फिर तुम वापस आये-पर कहाँ आये, मैंने ही समझ लिया क्योंकि वैसा ही मैं मानना चाहती थी! पर उन बातों को छोड़ो; प्रतीक्षा करना भी अच्छा है-आशापूर्वक भी, निराशापूर्वक भी क्योंकि आशा और निराशा दोनों प्रतीक्षा में ही सार्थक हैं।”

जिन अध्यापिकाओं और मुँह-लगी छात्राओं ने मिस नाथ के कम्प्लेक्शन और मसूरी के जलवायु के प्रताप की चर्चा की थी, वे अब जब-तब कहने लगी, “मिस नाथ, आपको यहाँ अच्छा नहीं लगता? आप फिर मसूरी हो आइये न - आपका चेहरा न जाने कैसा हो रहा है? नहीं, अस्वस्थ नहीं, पर न जाने कैसा एक कठोर भाव उस पर आता जाता है।”

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