ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
वह भुवन से क्या कह आयी है - कितना कह आयी है? कुछ भी कह आयी है, वह कुछ भी कह नहीं पायी है यह वह जानती है, और भुवन सुनकर भी क्या सुनता है वह नहीं जानती।
“आप मुझे चैलेंज कर रहे हैं! तो सुनिये...” किस दुस्साहस से वह कह गयी थी...। लेकिन उसे अच्छा लगा कि वहाँ वह साहस कर आयी - सचमुच वह भुवन का दर्द धो देने के लिए कुछ भी कर सके तो सहर्ष तैयार है। भुवन के लिए नहीं, अपने लिए, क्योंकि सुखी भुवन उसके जीवन के लिए आवश्यक है - उसके आधार पर उसने अपने जीवन का दर्शन खड़ा किया है...”मैं कह नहीं सकती थी अगर चाहती तो,” - अगर भुवन उसे फिर चुनौती देता कि अच्छा देखूँ, लिखो - तो...क्या वह लिखती? शब्द अधूरे हैं, उच्चारण माँगते हैं; लेकिन शब्दों के अन्तराल, पदों-वाक्यांशों की यति में, उस यति के मौन में एक शक्ति है जो उच्चारण के अधूरेपन को ढँक देती है, सम्पूर्णता देती है; और लिखने में वह नहीं है, लिखना बहुत पड़ता है...जैसे स्पर्श में-हलके-से-हलके स्पर्श में-कहने की जो शक्ति है वह किसी दूसरी इन्द्रिय में नहीं है-स्पर्श-संवेदना सबसे पुरानी संवेदना जो है, और बाकी सब उसके विस्तार...।
गौरा धीरे-धीरे खिड़की से हटकर बिछौने पर बैठ गयी, पास की छोटी मेज़ के निचले ताक से उसने पैड और कलम उठाया और गोद में रख लिया। नहीं, वह कुछ लिखना नहीं चाहती है, लिखकर कहना तो और भी नहीं; पर केवल एक आत्मानुशासन के रूप में - केवल अपने को स्थिर-चित्त करने के लिए वह दो-चार वाक्य लिखेगी - और नहीं तो इस प्रकार अपना प्रतिबिम्ब देखने के लिए उसके भीतर जो है वह कितना खरा है? कितना अच्छा? कितना गहरा, सच्चा, अर्थाविष्ट है? या नहीं है...।
वह रुक-रुक कर बारीक अक्षरों में एक-एक दो-दो पंक्ति लिखने लगी।
“सचमुच मेरे जीवन का सबसे बड़ा इष्ट यही है कि तुम्हें सुखी देख सकूँ-तुम्हारा व्रण ठीक कर सकूँ। मेरे स्नेह-शिशु, मैं तुम्हारे ही लिए जीती हूँ, क्योंकि तुम में जीती हूँ...।
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