ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“मेरा सहज बोध मुझे बताता था - पर तुम दूर थे, तुम और दूर भागते रहे; और मैं विश्वास नहीं जुटा पाती थी-मैं अन्तर्यामी तो नहीं हूँ। मैंने मान लिया, भक्त कवि ही ठीक कहते हैं, प्रिय को पाना ही निष्पत्ति नहीं है, विरह का भी रस है, और वह रस भी एक मार्ग है...
“मेरे शिशु, स्नेह-शिशु। भक्तों ने जो कृष्ण के बाल-रूप की कल्पना की है, वह बहुत बड़ी कल्पना है...जिसे मैं गोद खिलाती हूँ, वह अवतार भी है, भगवान् भी है - यशोदा जिसे पालने डुलाती है, वात्सल्य देती है, उसी को अपार श्रद्धा भी देती हैं, राधा जिस दही-चोर को धमकती है, उसी के पैर भी पूजती है - कोई भी प्यार नहीं है जो वत्सल नहीं है; कोई भी दान नहीं है जो विनीत नहीं है।
“तुम मेरा भविष्य हो, इसलिए मैं तुम्हें बनाती हूँ।
“तुमने मुझे विश्वास दिया है; मैं तुम्हारी बहुत कृतज्ञ हूँ। मुझे लगता है, मैंने बहुत बड़ी निधि पायी है, ऐश्वर्य पाया है। और तुमसे - मेरे जीवन के सारे तन्तु तुम्हारे चारों ओर लिपट गये हैं। वे बहुत सूक्ष्म हैं, तुम्हें बाँधेंगे नहीं, पर तुम उन्हें छुड़ा नहीं सकोगे, तोड़ ही सकोगे - और सब नष्ट करके ही। उनका कोई बोझ तुम पर नहीं होगा...।
“आग से तुम नहीं डरोगे अब - किसी चीज़ से नहीं डरोगे! आग को मैं सुगन्धित कर दूँगी, शिशु; ज़रूरत होगी तो स्वयं उसमें होम हो जाऊँगी पर तुम नहीं डरोगे, मुझे वचन दो; अपने को नहीं सताओगे - डर से नहीं, परिताप से नहीं...और हाँ, प्यार से भी नहीं-वह तुम्हें क्लेश दे तो उसे भी हटा देना! तुम देवत्व की साँस हो, देवत्व की शिखा हो जिसे मैं अन्तःकरण में पालूँगी...”
पन्ना उलट कर गौरा रुक गयी। पिछले तीन घंटों का दृश्य उसके मन में फिर उभर आया। उसे ध्यान आया, उसने जब-जब पूछा था कि तुम भाग तो नहीं जाओगे, तब-तब भुवन ने बात पलट दी थी, उत्तर नहीं दिया था। तो क्या वह उसे छोड़कर चला जाएगा - क्या वैसा इरादा उसने कर रखा है?
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