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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।

4


गौरा अपने कमरे में जाकर तुरन्त सोयी नहीं।

उसके कमरे की दो खिड़कियों में से छोटी खुली थी, बड़ी नहीं, क्योंकि उस ओर हवा का रुख था; अब उसने बड़ी खिड़की भी खोल दी। हवा के झोंके ने एक हल्की सिहरन उसकी देह में दौड़ा दी; वह उसे अच्छा लगा। वह खिड़की में जाकर खड़ी हो गयी। इस खिड़की के नीचे गेंदे के चार-पाँच बड़े-बड़े पौधे थे; बिजली की रोशनी में उनके बड़े-बड़े पीले और कत्थई फूल चमक गये। क्या बेतुका फूल है गेंदे का भी; यूरोपियन मेमों को जब भारत आते ही एकाएक साड़ी पहनने का शौक सवार होता है तब वे जो, जैसी, जिन चटक रंगों की साड़ियाँ-और जैसे!-पहनती हैं, उस पर मानो नीरव अन्योक्ति है गेंदे का फूल! इस तुलना पर गौरा तनिक-सी मुस्करा दी, फिर वह बत्ती बुझाने को मुड़ी कि इन फूहड़ मेम साहबों की उपस्थिति से छुट्टी पा जाये पर इरादा बदल कर वहीं लौट आयी। गेंदों की ओर उसने फिर देखा, स्थिर दृष्टि से; कल्पना की जा सकती है कि ये झाड़ियाँ जल रही हैं-झाड़ियों के भीतर छिपायी गयी आग फूट कर बाहर निकल रही है...भुवन के कमरे से बड़ी स्निग्ध गरमाई थी - भुवन शीघ्र सो जाये शायद, उसे अभी नींद नहीं आ रही है और इस कमरे में आकर तो और भी नहीं, यह ठण्ड शरीर को नयी स्फूर्ति दे रही है।

उसने कल्पना की भुवन की उस मुद्रा की, जिसमें वह उसे छोड़ आयी थी कमरे के बीच में खड़ा हुआ; और भुवन की आवाज़ उसके कानों में गूँज गयी, “जुगनू!” न जाने बचपन में वह इस नाम से इतना क्यों चिढ़ती थी; अब भी भुवन ने उसे चिढ़ाने या पुरानी चिढ़ की याद दिलाने के लिए ही इस नाम से पुकारा था, पर वह उसे अच्छा लगा था, और लग रहा था : वह नाम मानो एक सेतु था इतने दिनों के व्यवधान और दुराव के पार उसके बचपन के सुखमय दिनों तक, जब वे एक-दूसरे की बात नहीं सोचते थे पर एक-दूसरे को जानते थे, सहज भाव से...सहज भाव अब नहीं है, अब वे सोचते हैं, कहते हैं, दूर हटते हैं और फिर दूरी को उलाँघते हैं : बचपन के साथी पास होते हैं, यौवन के साथी पास आते हैं - लेकिन आने की अवस्था ही क्या होने की श्रेष्ठ अनुभूति नहीं है?

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