ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन का स्वर धीरे-धीरे बदलने लगा। गला भर्रा आया; क्रमशः वाक्तन्त्रों की झंकृति कम, और केवल वायु का स्वर बढ़ता चला, यहाँ तक कि बात केवल एक तीखी फुसफुसाहट हो गयी जो कभी-कभी टूट कर स्वनित हो जाती थी, बस...गौरा के रोंगटे खड़े हो गये - वह आवाज़ मानो मानवीय ही नहीं थी, मानो वातावरण में भटकती हुई कोई प्रेत-व्यथा वहाँ पूँजीभूत होकर स्वरित हो रही हो। वह निश्चल सुनती न रह सकी, पर भुवन को रोक भी न सकी; दबे-पाँव उठकर उसने टेबल लैम्प बुझा दी और फिर वहीं आकर बैठ गयी; भुवन आग को देख रहा था, उसे मालूम ही नहीं हुआ कि पीछे प्रकाश कम हो गया है, वह वैसे ही अमानुषी ढंग से बोलता रहा...।
“वह कलकत्ते चली गयी। दिल्ली तक मैं साथ आया था, यहाँ रेल में बिठाया था। रेल में एक और सवारी ने उससे पूछा था, ये कौन है? तो उसने कह दिया मेरे-हज़बैंड, सात साल हुए शादी हुई थी। पड़ोसिन उसे बधाई देने लगी।”
सहसा स्वर बन्द हो गया।
निस्तब्ध निश्चलता - आग की जीभें भी उठ रही थीं तो मानो इसीलिए कि पहले से उठ गयी हैं और अब रुकना ही गति होना, उठते रहना तो अगति है; वैसी हो साँसें-उठतीं और गिरतीं क्योंकि सदा से गिरती आयी हैं, वैसी ही क्षणों की धारा बहती क्योंकि अजस्र बहती आयी है...।
न जाने कितनी देर बाद, भुवन की एक शब्द-हीन विरस हँसी-”यह सब मैं क्या कह रहा हूँ।” फिर एक लम्बा मौन; फिर भुवन का रुकता-सा, सोचता-सा स्वर : “यही है मेरी कहानी गौरा - और तब से मैं आग में देखता हूँ चेहरे - मृत बच्चों के चेहरे - स्वयं अपना चेहरा क्योंकि मैं भी तो मर गया हूँ उसके साथ।”
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